भाव वृद्धि एवं अनिष्ट शक्तियोंके कष्टके निवारणार्थ दिनचर्याके मध्य की जानेवाली नित्य प्रार्थनाएं


भोजनके सम्बन्धमें तीव्र रुचि-अरुचिके (पसन्द-नापसन्दके) संस्कारोंको न्यून करने हेतु प्रार्थनाएं –
ऐसे साधक जिनके भोजनके रुचि-अरुचिके संस्कार अत्यधिक तीव्र होते हैं, उन्हें अनिष्ट शक्तियोंका अधिक कष्ट होता है, ऐसे हमने अपने अध्यात्मिक शोधमें पाया है एवं इस संस्कार केंद्रके तीव्र होनेपर जीव मृत्यु पश्चात् भी बद्ध होकर अनिष्ट योनिमें अपनी वासनाओंकी तृप्तिके कारण भटकता है ।  मुझे यह पदार्थ प्रिय है और मुझे यह प्रिय नहीं, यह अहंका ही लक्षण है । एक साधकमें उसके दादाजीका अतृप्त लिंग-देह प्रवेश कर, उसे अनेक वर्ष प्रताडित करती रही । एक दिवस जब वह साधक अच्छेसे साधना करने लगा तो उस लिंग-देहने कहा, “अब मुझे इसकी साधनाके कारण अत्यधिक कष्ट होने लगा है; अतः मुझे दही-भात खिला दो मैं चला जाऊंगा ।”  ऐसे अनेक सूक्ष्म साक्ष्य हमने प्रत्यक्षमें अनुभव किए हैं; इसीलिए साधकोंने अपनी अध्यात्मिक प्रगति हेतु एवं अनिष्ट शक्तियोंके वासनाओंके बलि न चढ सके, इस हेतु जो भी भोजन ईश्वर उपलब्ध करवाकर देते हैं, उसे कृतज्ञताके भावसे ग्रहण करना साधकत्व है । जब साधक ‘उपासना’के आश्रममें आते हैं तो मैंने देखा है कि वे आश्रमके महाप्रसादको भी अपनी रुचि-अरुचि अनुसार ही ग्रहण करते हैं, उनमें उस महाप्रसादके प्रति कृतज्ञताका भाव देखनेको नहीं मिलता । जो महाप्रसाद स्वर्गलोकके देवताको भी उपलब्ध नहीं होता, उसके प्रति आजके हिन्दुओंके इस भावको देखकर मुझे आश्चर्य होता है । वहीं यदि कोई भोज्य पदार्थ प्रिय हो तो वे दूसरोंका विचार नहीं करते हैं और अधिकसे अधिक स्वयं ही ग्रहण करने लगते हैं; यह मैंने अधिकतर साधकोंको (यद्यपि ऐसे लोगोंको साधक बोलना उपयुक्त नहीं होगा) ऐसा करते हुए पाया है; अतः आज इस दृष्टिकोणको देने हेतु बाध्य हुई हूं । हमारे महर्लोकवासी माता-पिताने बाल्यकालसे ही सब कुछ महाप्रसादके भावसे ग्रहण करना सिखाया था; अतः मात्र भारतमें ही नहीं अपितु विश्वके अनके देशोंके लोगोंके यहां मैं सबकुछ गुरुप्रसाद मानकर सहजतासे ग्रहण कर पायी ।
जिन साधकोंको भोजनसे सम्बन्धित संस्कार अति तीव्र हैं, उन्होंने इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए –
“हे प्रभु, आपको तो ज्ञात ही है कि थालीमें परोसी गयी महाप्रसादकी फलां-फलां (उस भोज्य पदार्थका नाम लें) मुझे प्रिय नहीं है; किन्तु साधनाके दृष्टिकोणसे मुझे आपके द्वारा दिए गए सर्व प्रसाद स्वीकार्य है; अतः मैं इसे प्रेमसे एवं कृतज्ञताके भावसे ग्रहण कर सकूं ऐसी आप कृपा करें ।”
उसीप्रकार जब आपको कोई भोज्य-प्रदार्थ अत्यधिक प्रिय हो तो उसे ग्रहण करनेसे पूर्व इस प्रकार प्रार्थना करें –
” हे प्रभु आपको तो ज्ञात ही हैं कि मेरी थालीमें परोसी गयी महाप्रसादकी फलां-फलां (उस भोज्य पदार्थका नाम लें) मुझे अत्यधिक प्रिय है; अतः इसे ग्रहण करते समय मैं अपनी जिह्वापर नियंत्रण रख सकूं एवं शरीर हेतु जितना आवश्यक है उतना ही ग्रहण कर सकूं एवं इसे ग्रहण करते समय मैं अन्य साधकोंका भी विचार करके ग्रहण करूं, ऐसी आप कृपा करें ।”  – तनुजा ठाकुर (क्रमश:)



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