अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
अर्थ : अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकारसे निरन्तर आपके भजन-ध्यानमें लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भावसे भजते हैं- उन दोनों प्रकारके उपासकोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
अर्थ : श्री भगवान बोले- मुझमें मनको एकाग्र करके निरंतर मेरी उपासनामें लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वरको भजते हैं, वे मुझको योगियोंमें अति उत्तम योगी मान्य हैं ॥2॥
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
भावार्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार वशमें करके मन-बुद्धिसे परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
भावार्थ : उपर्युक्त श्लोकोंसे भगवान् श्रीकृष्णने यह स्पष्ट कर दिया है कि ईश्वरके सगुण और निर्गुण स्वरुपमें कोई भेद नहीं है और दोनों ही स्वरुपकी उपासना करनेवालेको परम गति प्राप्त होती है | उपासक किस भावसे उपसना करता है इसका महत्व है, अधिकांशत: भक्तिमार्गी सगुणकी आराधना करना सरल लगता है वहीँ ध्यान, ज्ञान और कर्मके मध्यामसे साधना करनेवालोंके लिए ईश्वरके निर्गुण स्वरुपकी साधना करना सहज लागता है परन्तु सभीका लक्ष्य एक ही होता है परम आनंदकी प्राप्ति करना ! –
-तनुजा ठाकुर
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