साधकके लिए सावधानी आवश्यक !


मनो नाम महाव्याघ्रो विषयारण्यभूमिषु ।
चरत्यत्र  न गच्छन्तु साधवो ये मुमुक्षव: ।।   –  विवेकचूडामणि
अर्थ: मन नामका भयंकर व्याघ्र विषयरूपी वनमें घूमता रहता है । जो साधू हैं, मुमुक्षु हैं वे वहां न जाएं ।
भावार्थ : इस श्लोकमें साधू शब्दका तात्पर्य साधकसे है ।  मनका कार्य ही है, विचार करना और विचारको आधार चाहिए, जब तक हमारी वृत्ति रज-तम प्रधान होती है तब तक मन विषय-वासनाओंके विचारमें रममाण रहता है । ऐसेमें अपनी प्रवृत्तिको सात्त्विक बनानेका प्रयास करना चाहिए । मनमें जितने अधिक विचार आएंगे, वह उतना ही अधिक अशांत रहेगा और गीतामें भगवान श्रीकृष्णने कहा है – ‘अशांतस्य कुतः सुखं’ अर्थात यदि मन अशांत है तो वह कहीं भी स्थिर, सुखी और शांत नहीं रह सकता है । और साधकको चित्तकी शुद्धि करनी है तो मनका सर्वप्रथम स्थिर होना और तत्पश्चात एकाग्र होना आवश्यक है, इस हेतु ग्रंथ अभ्यासके साथ ही अपने योगासन-प्राणायाम, आचार-विचार, खान-पान, संगत इत्यादिपर विशेष ध्यान देना चाहिए । बाह्य सात्त्विक अनुशासन, जिसे हम धर्माचरण भी कहते हैं उससे मन थोडा नियंत्रित होता है और उसके पश्चात आंतरिक साधना आरम्भ हो जाती है । साधनामें भी यदि हम धर्माचरण, सदाचरण और सत्संगका जोड दें तो ये सर्व घटक मनकी एकाग्रतामें  सहायक सिद्ध होते हैं और इस प्रकारके सतत प्रयत्नोंसे मन सात्त्विक विषयोंमें ही रममाण होता है और जैसे ही साधक निर्गुण अर्थात त्रिगुणातीत अवस्थाकी ओर बढने लगता है, उसका मनोलय आरंभ हो जाता है, मनमें विचारोंकी संख्या अत्यल्प रह जाती है और अंततः वह निर्विचार होकर निर्विकल्प समाधिकी अनुभूति प्राप्त करता है ।


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