सन्तोंका सामर्थ्य


कल मैं कुछ साधकोंके साथ, हमारे श्रीगुरुके गुरु परम पूज्य भक्तराज महाराजके मोरटक्का, जो इन्दौरसे ८० किलोमीटर दूरीपर है, स्थित आश्रममें गई थी । वहां दर्शन एवं अल्पाहारके पश्चात आश्रमका उत्तरदायित्व सम्भालनेवाले एक साधकने हमें बद्रीनाथमें ६० वर्ष तपस्या कर, वहीं नर्मदा तटपर एक आश्रममें रहनेवाले एक सिद्ध तपस्वीके दर्शन कराने ले गए थे । वे ‘क्रिया योगी’ तपस्वी हैं । ईश्वरीय कृपासे जब हम आश्रम पहुंचे तो वे वहीं बाहर आश्रमके प्रांगणमें अपने कुछ भक्तोंके साथ बैठे हुए थे; अतः उनका सत्संग और मार्गदर्शन दोनों ही प्राप्त हुआ । कलियुगमें क्रिया योगके माध्यमसे साधना करनेवाले ऐसे सिद्ध तपस्वी बहुत ही कम समाजाभिमुख होते हैं; अतः उनके दुर्लभ दर्शन और सत्संग हेतु हमने श्रीगुरुको कृतज्ञता व्यक्त की । एक दिवस पूर्व मोरटक्का आश्रम जाने हेतु मैं स्वयं कुछ प्रसाद लेकर आई थी । प्रसाद लेते समय मैंने दूकानदारको दो थैलियोंमें एक सा प्रसाद डालनेके लिए कहा । मैंने दो थैलियां प्रसादकी क्यों बनवाई ?, यह मुझे ज्ञात नहीं था; किन्तु यह निश्चित ही ईश्वरीय प्रेरणा थी । जब अकस्मात क्रिया योगी बाबाके यहां जाना हुआ तो मैं वह प्रसाद उनके श्रीचरणोंमें अर्पण कर पाई, इससे ही ज्ञात होता है कि उनका हमारा मिलना पूर्व निर्धारित था और उन्होंने ही मुझे ऐसा करने हेतु प्रेरित किया था । इसीको सन्तों और तपस्वियोंका सामर्थ्य कहते हैं ! (३.८.२०१८)



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