श्रीगुरुके प्रति शरणागत होनेके कारण (भाग – ९)


मैं अपने श्रीगुरुसे क्यों जुडी, यह कुछ लोग मुझसे पूछते रहते हैं, तो इस लेख श्रृंखलामें मैं प्रतिदिन आपको एक कारण बताऊंगी…..
अप्रैल १९९७ में सनातन संस्थासे जुडनेके पश्चात् मैंने पाया कि इस संस्थाके सभी साधकमें प्रेमभाव, त्याग, दूसरोंका विचार करना, गुरुके प्रति अटूट निष्ठा जैसे दिव्य गुण विद्यमान थे | मैं इन सबसे अत्यधिक प्रभावित हुई | मैं ऐसे ही एक कुटुंबका सदस्य बनना चाहती थी जहां जानेके पश्चात् उनके वर्तनसे मन आनंदविभोर हो जाए, जहां ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षितमें कोई भेदभाव न हो |
सनातन संस्थासे जुडनेके पश्चात् प्रथम तीन माहमें ही मैंने कुछ ऐसे बातें वहांके साधकोंमें देखी जिससे मैं उसी संस्थाकी होकर रह गई | यहां सभी प्रसंगोंको साझा करना तो असंभव है; किन्तु कुछ ऐसे प्रसंग जिसने मुझे मेरे श्रीगुरुके प्रति शरणागत होने हेतु प्रेरित किए उनमेंसे कुछ प्रसंग इसप्रकार हैं –
१. मेरे पिताजीके जीवन व्यतीत करनेका सिद्धान्त मेरा भी था और वह था सादा जीवन उच्च विचार | मुझे बाह्य आडम्बर कभी भी अच्छे नहीं लगे हैं | सनातनके साधकोंमें मैंने सादगी देखी | वे सामान्य वेशभूषा धारण करनेवाले असामान्य एवं दैवीय गुणयुक्त साधक लगे, ऐसा मैं संक्षेपमें कह सकती हूं |
२. हमारी केंद्र सेवक एवं सेविका (पति-पत्नी) जिससे मेरा प्रथम परिचय एक सत्संगमें हुआ, वे एक सद्गृहस्थ  थे | वे दोनों ही किसी शासकीय चाकरीमें (सरकारी नौकरीमें) थे | अपने चाकरीसे बचे हुए समयमें वे व्यष्टि और समष्टि साधना करते थे | वे हमसे चार वर्ष पूर्वसे श्रीगुरुसे जुडे थे और उनमें कुछ ऐसे गुण थे जो मुझे मेरे श्रीगुरुके प्रति श्रद्धा निर्माण करनेमें सहायता की | हम दोनों ही नवी मुंबईमें रहते थे; किन्तु वे चाकरी हेतु मुंबई जाते थे | मैं संध्या समय उनके घरमें अपने कार्यालयसे पहले पहुंच जाती थी; क्योंकि मेरा कार्यालय नवी मुंबईमें था | उनका प्रेमभाव मेरे हृदयको स्पर्श कर गया था | वे मेरे लिए पहलेसे ही कुछ अल्पाहार निकालकर जाते थे, रात्रिमें मुझे घर जाकर भोजन न बनाना पडे इस हेतु भी प्रातःकाल रात्रिके भोजनका नियोजन करके जाते थे  | हमें प्रथम दिवससे ही लगा जैसे वह उनका घर नहीं, हमारे श्रीगुरुका आश्रम है | मात्र चार वर्षमें हमारे श्रीगुरु, उन्हें अध्यात्मके ढेरों दृष्टिकोण सिखा चुके थे जिसे वे मुझे बडे प्रेमसे बात ही बातमें या अपने आचरणद्वारा बताया करते थे | उनके साथ समष्टि साधना कर, हमें अत्यधिक आनन्द मिला |
२. एक बार हमारी केंद्र सेविकाने मुझसे कहा, “आज हमें एक साधकने अपने घरमें बुलाया है, उनके पुत्रका जन्मदिन है,  वे बहुत भावसे धर्मप्रसारकी सेवामें योगदान देते हैं , क्या आप हमारे साथ चलेंगी,?” वह स्थान वहांसे निकट ही था; अतः मैं उनके साथ गई | वहांके दृश्य एवं प्रसंगने मेरे अंतर्मनमें एक विशिष्ट छाप छोडा | वे एक निर्धन एवं अशिक्षित साधक थे और उनका एक छोटाका कक्ष था | हम एक पतली गली होते हुए उनके घर पहुंचे थे | बाहर कुछ साधक खडे थे, कोई चाय पी रहे थे तो कोई अल्पाहार ले रहे थे | हम उनके घरमें गए | वे हमसे मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुए | हमें कुर्सीपर बैठे दस मिनिट भी नहीं हुए होंगे, हमारी केंद्र सेविकाने कहा, “चलो, अब हम बाहर चलते हैं, मैंने पूछा. “क्यों”?  वे बोलीं “और कोई आकर उनके पुत्रसे मिलेगा इसलिए |” मैं उनके साथ बाहर आई तो पंद्रहके लगभग साधक गलीमें खडे होकर प्रेमसे वार्तालाप कर रहे थे | मैं मात्र सबको देख रही थी | आधे घंटे पश्चात् हम निकलने लगे तो जिनके घरमें यह कार्यक्रम था, वे करबद्ध बडे प्रेमसे नेत्रोंमें अश्रु लिए हम सभी साधकोंको आभार प्रकट कर रहे थे | संभवत: उन्हें भी नहीं लगा था कि उनके घर इतने लोग आयेंगे | वे क्षमा याचना कर रहे थे कि वे हमें बैठनेके लिए भी स्थान न दे पाए; किन्तु सभी साधक उन्हें ही कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे कि उनके कारण सभीका  मिलना हो पाया | मैं ऐसे ही एक कुटुंबका शोध कर रही थी जहां निर्धन और धनीमें , शिक्षित और अशिक्षितमें कोई भेदभाव न हो | मुझे उस दिवस अत्यधिक आनन्द आया |
इसीप्रकार २५ १९९७ के दिवस हम पनवेलमें श्रीगुरुके सार्वजानिक प्रवचन निमित्त गए थे और उस दिवस, रात्रि निवास भी हमारा वहीं था | मुझे प्रातःकाल शीघ्र उठकर सैर करनेकी आदत है; अतः मेरी केंद्र सेविका भी मेरे साथ टहलने निकलीं |  हमारे रहने हेतु एक कक्ष हमें दिया गया था जिसमें हम चार साधिकाएं थी | बाहरके कक्षमें जो अत्यंत छोटा था उसमें चार लोग भी नहीं सो सकते, वहां दस साधक सोये थे हमारे बाहर जाने हेतु दो फीटका स्थान छोड, कोई सोफेपर कोई पलंगपर तो कुछ साधक नीचे सोए थे | हमने देखा एक साधक कुर्सीके नीचे सिर डालकर किसी प्रकार सोये हुए हैं, हमारी केंद्र सेविकाने बताया कि वे एक बडे प्रतिष्ठानमें उच्च पदस्थ अधिकारी हैं, उन्हींमें कोई शिक्षक, कोई व्यवसायी तो कोई चिकित्सक थे | मैंने उनसे बाहर जाकर पूछा, “क्या इनके सोनेकी व्यवस्था नहीं हो पाई थी ?” उन्होंने कहा, “सभी साधक प्रातःकाल तीन बजे मंच सज्जा कर लौटे हैं और कहीं जानेसे सभीकी नींदमें व्यवधान पडता; अतः सब यहीं आकर किसी प्रकार सो गए |” दूसरोंका विचार करनेका इतना सुन्दर उदहारण देखकर और भेदभाव रहित वर्तन देखकर, मैं बहुत आनंदित हुई | मैंने मन ही मन उन सभी साधकोंके त्यागको नमस्कार किया और अपने श्रीगुरुको भी, जिन्होंने साधकत्वके इतने अच्छे तत्त्व सभीको सिखाएं थे |
३. इसीप्रकार मैं मराठी साधकोंके मध्य अकेली ही हिंदी भाषिक हुआ करती थी जिसे मराठी नहीं आती हो, कुछ और हिंदी भाषिक थे; किन्तु वे मुंबईमें रहते थे अतः उन्हें मराठी थोडी बहुत आती थी | मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे मराठी भाषा नहीं आती है; अतः मैं वहां नीरसता अनुभव कर रही हूं | सभी साधक बहुत ही प्रेमसे मिलते थे और जैसे ही उन्हें ज्ञात होता कि मुझे मराठी नहीं आती है वे भी मुझसे टूटी-फूटी हिंदीमें प्रेमसे बातें करते, विशेषकर गृहिणी मराठी स्त्री साधिकाएं जो मुंबई या नवी मुंबईके आस-पासमें रहती थीं उन्हें  हिन्दी ठीकसे नहीं आती थी | मैं उनके इस छलकते प्रेमको देख मंत्रमुग्ध हो जाती; मुझे कहीं भी प्रांतवाद इत्यादिकी झलक कभी नहीं मिली और पता नहीं कब मैं उनकी हो गई |
एक देसी कहावत है, माताका अभिज्ञान(पहचान) पुत्रीसे हो जाता है और गुरुका अभिज्ञान शिष्यसे हो जाता है | अपने श्रीगुरुद्वारा निर्माण किए गए सरल, सहज, त्यागी, प्रेमभावयुक्त, ज्ञानी एवं चरित्रसम्पन्न साधकोंको देखकर भी मैं अपने श्रीगुरुके प्रति शरणागत हुई |- तनुजा ठाकुर (२९.९.२०१७)



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