साधकोंको बाहरका भोजन क्यों नहीं करना चाहिए ? (भाग-५)


आजकल भारतीय आधुनिक भोजनालयका (होटलका) भोजन बहुत प्रेमसे खाते हैं । इसका प्रचलन पिछले दस वर्षोंमें अत्यधिक बढ गया है और अब तो छोटे नगरोंमें भी यह वृत्ति बढ रही है जो बहुत ही दुखद है ।
यूरोप धर्मयात्राके मध्य ऑस्ट्रियाके साल्जबर्ग महानगरमें एक साधकके घर रुकना हुआ । वे पहले भोजनालय चलाते थे । सितम्बर २०१९ में मैं जब वहां गई थी तो उनकी बिटियाने अपने पिताजीके अनुभवोंसे सीखकर और उनकी सहायता लेकर यही व्यवसाय आरम्भ किया था । साल्जबर्ग अपनी प्राकृतिक सुन्दरताके कारण एक पर्यटक स्थल है; इसलिए वहां यह एक मुख्य व्यवसाय है । वे प्रतिदिन अपनी पुत्रीके नूतन बने हेतु भोजनालयमें जाकर सेवा देते थे । बात ही बातमें उन्होंने बताया कि मैं कभी भोजनालयमें नहीं खाता हूं, चाहे मेरी पुत्रीका ही क्यों न हो ? मेरा सुझाव तो यह है कि किसीको भी इसमें नहीं खाना चाहिए; क्योंकि चाहे यहांका शासनने इस सम्बन्धमें बहुत कठोर विधान बनाए हैं और यहां कभी भी शासकीय अधिकारी निरीक्षण हेतु आ जाते हैं तब भी सभी भोजनालयके व्यवसायी, लोगोंको चारसे आठ दिन पुराना या बासी भोजन खिलाते ही हैं । भोजनालयमें उपयोग होनेवाले फल, तरकारी, तेल, मसाले सभी निम्न स्तरके होते हैं, चाहे वह कितना बडा ही भोजनालय क्यों न हो ? क्योंकि उस उद्योगका उद्देश्य ही धन अर्जित करना है ।
मैंने देखा कि यूरोपीय प्रतिदिन तीनों समय या जब भी भूख लगे तो बाहर ही खाते हैं, मात्र रविवारके दिवस वे घरमें भोजन बनाते हैं और इसलिए वहांके लोगोंके शारीरिक प्रतिरोधात्मक क्षमता कितनी न्यून है ?
यह कोरोना कालमें सबको समझमें आ ही गया होगा । वहांपर मनोरोगी भी बहुत अधिक संख्यामें हैं । मैं इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रिया इत्यादि जितने भी देशोंमें धर्मप्रसार हेतु गई तो देखा कि वहांके भीतोंपर (दीवारपर) कुछ उनकी भाषामें अस्त-व्यस्त रूपसे लिखा होता है, मुझे जिज्ञासा हुई तो मैंने एक साधकसे पूछा कि यह सभी यूरोपके भिन्न देशोंमें भीतोंमें क्या लिखा होता है ? उसे देखकर ही लगता था जैसे किसीने अपने मनकी भडास निकालनेका प्रयास किया हो तो उस साधकने बताया कि यहां लोग रात्रिसे भिन्न मादक पदार्थोंका सेवन कर लेते और उसके पश्चात वे इसमें गन्दी बातें या अपशब्द लिखकर अपनी मनकी भडास निकलाते हैं तो मेरा उस विषयमें निरीक्षण सही ही था । एक तो वैसे ही वहांकी सभ्यतामें सत्त्व गुण है ही नहीं, ऊपरसे अनुचित आहारके कारण, वहांके जन सामान्यका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सामान्य मानकसे बहुत नीचे है । इसलिए वहां अधिकांश देशोंमें शासन नि:शुल्क चिकित्सा प्रदान करता है; क्योंकि एक तो जनसंख्या वैसे ही कम है और ऊपरसे लोग अस्वस्थ शरीरके कारण और महंगी चिकित्साके कारण मरने लगे तो उनका अस्तित्व ही नष्ट हो जाएगा । आपको बता दें वहांके युवा पीढी अब न विवाह करना चाहती है और न ही बच्चोंको जन्म देना चाहती है; इसलिए यूरोपके अनेक देशोंमें जनसंख्या सन्तुलन रखने हेतु मुसलमान शरणार्थियोंको शरण देना आरम्भ किया और आज उनकी स्थिति क्या वह वह आप समाचारोंसे पढ ही रहे होंगे ! इन सबमें अनुचित आहार भी उत्तरदायी है ।
वहां जाकर उनकी चकाचौंधमें अन्धे आधुनिक हिन्दू उनकी चिकित्सा व्यवस्थाओंकी स्तुति करते थकते नहीं है, उन्हें यह नहीं समझमें आता है कि ऐसा करना उनकी विवशता है, जिसका मूल कारण उनकी तमोगुणी जीवन शैली है और आजका भारत उसी दिशामें अग्रसर हो रहा है जो अत्यधिक चिन्ताकी बात है ।



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