शास्त्र वचन

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शास्त्रनित्या जितक्रोधा बलवन्तो रणे सदा । जन्मशीलगुणोपेताः संधेयाः पुरुषोत्तमाः ॥ अर्थ : युधिष्ठिरद्वारा मित्र किसको बनाना चाहिए, पूछनेपर भीष्म कहते हैं – जो प्रतिदिन शास्त्रोंका स्वाध्याय करते हैं, क्रोधको नियन्त्रणमें रखते हैं और युद्धमें सदा प्रबल रहते हैं । जिनका उत्तम कुलमें जन्म हुआ है, जो शीलवान और श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष […]

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श्रद्दधानः शुभां विद्या हीनादपि समाप्नुयात् । सुवर्णमपि चामेध्यादाददीताविचारयन् ॥ अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं : नीच वर्णके पुरुषके पास भी उत्तम विद्या हो तो उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करनी चाहिए और सोना अपवित्र स्थानमें भी पडा हो तो उसे बिना हिचकिचाहटके उठा लेना चाहिए । —– परेषां यदसूयेत न तत् कुर्यात् स्वयं नरः । यो […]

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अदातृभ्यो हरेद् वित्तं विख्याप्य नृपतिः सदा । तथैवाचरतो धर्मो नृपतेः स्यादथाखिलः ॥ अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं : जो धन  रहते हुए उसका दान न करते हों, ऐसे लोगोंके इस दोषको विख्यात करके राजा सदा धर्मके लिए उनका धन ले ले ऐसा आचरण करनेवाले राजाको सम्पूर्ण धर्मकी प्राप्ति होती है । सुखदुःखे समाधाय पुमानन्येन […]

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दुःखं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते । त्यागात् तेभ्यो निरोधः स्यान्निरोधज्ञो विमुच्यते ॥ अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं – शरीरके ग्रहण मात्रसे दुःखकी प्राप्ति निश्चित समझनी चाहिए । शरीरमें अभिमान करनेसे उस दुःखकी वृद्धि होती है । अभिमानके त्यागसे उन दुःखोंका अन्त होता है । जो दुःखोंके अन्त होनेकी इस कलाको जानता है, वह मुक्त हो जाता […]

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लोहयुक्तं यथा हेम विपक्वं न विराजते । तथापक्वकषायाख्यं विज्ञानं न प्रकाशते ॥ अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं – जैसे लोहयुक्त सुवर्ण आगमें पकाकर शुद्ध किए बिना अपने स्वरूपसे प्रकाशित नहीं होता, उसी प्रकार चित्तके राग आदि दोषोंका नाश हुए बिना उसमें ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित नहीं होती । तथापक्वकषायाख्यं मोहस्तमसा भरतर्षभ । क्रोधलोभौ भयं दर्प […]

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धर्मादुत्कृष्यते श्रेयस्तथश्रेयोsप्यधर्मतः । रागवान् प्रकृतिं ह्येति विरक्तो ज्ञानवान् भवेत् ॥ अर्थ : मनु, बृहस्पतिसे कहते हैं – धर्म करनेसे श्रेयकी वृद्धि होती है और अधर्म करनेसे मनुष्यका अकल्याण होता है । विषयासक्त पुरुष प्रकृतिको प्राप्त होता है और विरक्त आत्मज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाता है । अज्ञानतृप्तो विषयेष्ववगाढोनतृप्यते । अदृष्टवच्च भूतात्मा विषयेभ्यो निवर्तते ॥ […]

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अथ यन्मोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं   तमस्तदुपधारयेत्॥ अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं – जब मनमें कोई मोहयुक्त भाव उत्पन्न हो और किसी भी इन्द्रियका विषय स्पष्ट न जान पडे, उसके विषयमें कोई तर्क भी कार्य न करे और वह किसी प्रकार  समझमें  न  आए, तब  यही  निश्चय  करना  चाहिए  कितमोगुणकी वृद्धि हुई है । ***** […]

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अनित्यं  यौवनं   रूपं   जीवितं   दृव्यसंचयः । आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डितः ॥ अर्थ : मनु, बृहस्पतिसे कहते हैं – यौवन, रूप, जीवन,   धन-संग्रह, आरोग्य और प्रियजनका समागम ये सब अनित्य      हैं । विवेकशील पुरुषोंको इनमें आसक्त नहीं होना चाहिए । यथाम्भसि  प्रसन्ने  तु रूपं पश्यति चक्षुषा । तद्वत्प्रसन्नेन्द्रियत्वाज्ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति ॥ अर्थ : मनु, […]

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त्रिवर्गो यस्य विदितः प्रेक्ष्य यश्च विमुञ्चति । अन्विष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः ॥ अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं : जिसे धर्म, अर्थ और काम, इन तीनोंका ठीक-ठीक ज्ञान है, जो बहुत सोच समझकर उनका परित्याग कर चुका है और जिसने मनके द्वारा आत्मतत्त्वका अनुसन्धान करके योगयुक्त हो, आत्मासे भिन्न वस्तुके लिए उत्सुकताका त्याग कर दिया […]

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अवमानस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता । कथंचिदभिवर्तन्ते विविधास्तामसा  गुणाः ॥ अर्थ: भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं : जब अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न, निद्रा और आलस्य आदि दोष किसी प्रकार भी घेरते हों तो उन्हें तमोगुणके ही विविध रूप समझें ! रश्मींस्तेषां स मनसा यदा सम्यंगनियच्छन्ति । तदा प्रकाशतेsस्यात्मा  घटे दीपो ज्वलन्निव ॥ अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे मन, […]

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