त्रिवर्गो यस्य विदितः प्रेक्ष्य यश्च विमुञ्चति ।
अन्विष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः ॥
अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं : जिसे धर्म, अर्थ और काम, इन तीनोंका ठीक-ठीक ज्ञान है, जो बहुत सोच समझकर उनका परित्याग कर चुका है और जिसने मनके द्वारा आत्मतत्त्वका अनुसन्धान करके योगयुक्त हो, आत्मासे भिन्न वस्तुके लिए उत्सुकताका त्याग कर दिया है, वह तत्त्वदर्शी है ।
अभयं चानिमित्तं च न तत् क्लेशसमावृत्तम् ।
द्वाभ्यां मुक्तं त्रिभिर्मुक्तमष्टाभिस्त्रिभिरेव च ॥
अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं : परमात्माका परमधाम विनाशके भयसे रहित है; क्योंकि वह कारणरहित नित्य सिद्ध है । वह अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक पाञ्च क्लेशोंसे घिरा हुआ नहीं है । उसमें प्रिय-अप्रिय ये दो भाव नहीं हैं । प्रिय-अप्रियके हेतुभूत तीन गुण सत्त्व, रज, तम भी नहीं हैं तथा वह परमधाम भूत, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, उपासना, कर्म, प्राण और अविद्या इन आठ पुरियोंसे भी मुक्त है । वहां ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इस त्रिपुटीका भी अभाव है ।
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