गीता सार

निश्चयात्मिक बुद्धिसे साधना कर हो सकती है शान्तिकी अनुभूति


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥ अर्थ : न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरुषमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्यके अन्तःकरणमें भावना भी नहीं होता तथा भावनाहीन मनुष्यको शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है ? भावार्थ : जिस व्यक्तिका मन सतत […]

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गीता सार – मनुष्य कर्मोंके चक्रव्युहमें अज्ञानतावश मोहित हो जाता है |


नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ – श्रीमदभगवद्गीता (५:१५) अर्थ : सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसीके पाप कर्मको और न किसीके शुभकर्मको ही ग्रहण करते हैं, किन्तु अज्ञानद्वारा ज्ञान ढंका हुआ है, उसीसे सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं | भावार्थ : परमेश्वर यद्यपि इस सृष्टिके रचियता […]

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सूक्ष्म देहकी उत्तरोतर सूक्ष्म संरचना


इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ – श्रीमदभगवद्गीता ३.४२ अर्थ : इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे परे अर्थात श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियोंसे परे मन है, मनसे भी परे बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त परे जो है वह आत्मा है | भावार्थ : यहां भगवान श्रीकृष्ण […]

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गीता सार – परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है


अपि  चेत्सुदुराचारो  भजते   मामनन्यभाक्‌ । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः || – श्रीमदभगवद्गीता (९:३०) अर्थ :  यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है; अर्थात्‌ उसने भलीभांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ […]

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अपना उद्धार अपने हाथ


उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ – श्रीमद भगवद्गीत(६:५) अर्थ : स्वयंद्वारा अपना संसार-समुद्रसे उद्धार करें और स्वको अधोगतिमें न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु भी होता है | भावार्थ : यह सच है कि ब्रह्माजीने सृष्टिकी रचना कर हमें जन्म-मृत्युके बंधनमें डाल […]

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गीता सार-ईश्वरके सगुण और निर्गुण स्वरुपमें कोई भेद नहीं है


अर्जुन उवाच एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ अर्थ  :  अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकारसे निरन्तर आपके भजन-ध्यानमें लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भावसे भजते हैं- उन दोनों प्रकारके उपासकोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥ श्रीभगवानुवाच […]

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गीता सार-योगमें श्रद्धा रखनेवाला


अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ – श्रीमद्भग्वद्गीता (६:३७) अर्थ : अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण ! जो योगमें श्रद्धा रखनेवाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकालमें योगसे विचलित हो गया है, ऐसा साधक योगकी सिद्धिको अर्थात भगवत्साक्षात्कारको न प्राप्त होकर किस गतिको प्राप्त होता […]

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गीता सार – ज्ञानयोग


गीता सार  : अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥  – श्रीमदभगवद्गीता (४: ३६) अर्थ : यदि तू अन्य सब पापियोंसे भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाद्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभांति तर जाएगा | भावार्थ : साधनाके माध्यमसे हम अपने सारे कर्मोंके कर्मफलको भस्म कर सकते […]

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गीता सार-सर्वत्र ब्रह्म स्वरूपकी प्रचीति


                    विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ अर्थ : वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं| – श्रीमद भगवद्गीता (५:१८) भावार्थ : स्थितप्रज्ञताको प्राप्त व्यक्ति समदर्शी हो जाते हैं […]

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गीता सार-सकाम कर्म एवं निष्काम कर्म


युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥  – श्री मद्भगवद्गीता (५:१२) अर्थ : कर्मयोगी कर्मोंके फलका त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूपी शान्तिको प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामनाकी प्रेरणासे फलमें आसक्त होकर बंधता है ॥ भावार्थ : कर्म दो प्रकारके होते हैं सकाम कर्म एवं निष्काम कर्म | सकाम कर्म अर्थात् […]

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