गीता सार : त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ अर्थ : जो पुरुष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग करके संसारके आश्रयसे रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह भलीभाँति कर्मरत रहकर भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता ॥ – श्रीमद्भगवद गीता (४:२०) भावार्थ : सृष्टिके […]
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ श्रीमदभगवद्गीता (४:१३) अर्थ : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णोंका वर्गीकरण, गुण और कर्मोंके आधारपर मेरेद्वारा रचा गया है । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्मका कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान॥ भावार्थ : हमारी वैदिक संस्कृति वर्णाश्रम व्यवस्था […]
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ – श्रीमदभगवद्गीता (५:२४) अर्थ : जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है | भावार्थ […]
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ – श्रीमदभगवद्गीता (३: ३५) अर्थ : अच्छी प्रकार आचरणमें लाए हुए दूसरेके धर्मसे गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है | भावार्थ : कलियुगके आरंभ होने तक मात्र एक ही धर्म था […]
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ – श्रीमदभगवादगीता(२.३१) अर्थ : अपने धर्मको देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रियके लिए धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है| भावार्थ : अध्यात्ममें भावनाके लिए […]
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ – (श्रीमदभगवद्गीता -२.४७) अर्थ : तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं । इसलिए तू कर्…मोंके फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ॥ – (श्रीमदभगवद्गीता -२.४७) भावार्थ […]
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥- (श्रीमद भगवद गीता २.३७ ) अर्थ : या तो तू युद्धमें मारा गया तो स्वर्गको प्राप्त होगा; अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा । इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्धके लिए निश्चय कर खडा […]
गीता सार : यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ श्रीमदभगवद्गीता (२:४६) अर्थ : सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मको तत्वसे जाननेवाले ब्राह्मणका समस्त वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रह जाता है ॥ भावार्थ : एक बार शब्दातीत ब्रहमकी प्रचीति हो जाये तब उस […]
अव्यक्तादीनिभूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता (२.२८) भावार्थ : हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मृत्यु पश्चात भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल मध्यमें(शरीर रूप में) ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना ? भावार्थ : पितरोंके कष्टके विषयमें सुननेके पश्चात कुछ अल्पज्ञानी […]
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च। यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ – श्रीमदभगवद्गीता ३:३८ अर्थ : जिस प्रकार धुएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढंका जाता है तथा जिस प्रकार जेरसे गर्भ ढंका रहता है, वैसे ही उस कामद्वारा यह ज्ञान ढंका रहता है| भावार्थ : काम अर्थात इच्छाएं | आत्मज्ञानकी प्रक्रियामें सबसे बडा अवरोधक काम है | इच्छाएं […]