गीता सार

गीता सार


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ – श्रीमदभगवद्गीता (३:५) अर्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी कालमें क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणोंद्वारा परवश हुआ कर्म करनेके लिए बाध्य किया जाता है | भावार्थ : यह विश्व कर्मप्रधान है | अतः […]

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ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ –  श्री मदभगवद्गीता (५:२२) अर्थ :  जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःखके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष […]

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गीता सार


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥……… Geeta Saar Bhag 5 : http://www.youtube.com/watch?v=uxaUEoIKvO8&feature=youtu.be

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गीता सार


नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥ प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥ इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥ – श्री मदभगवद्गीता (५: ८.९) भावार्थ : तत्वको जाननेवाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा नेत्रोंको […]

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गीता सार


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ – श्रीमदभगवद्गीता (३: ३५) भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरणमें लाए हुए दूसरेके धर्मसे गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है | भावार्थ : कलियुगके आरंभ होने तक मात्र एक ही धर्म […]

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गीता सार


गीता सार  : अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥  – श्रीमदभगवद्गीता (४: ३६) अर्थ : यदि तू अन्य सब पापियोंसे भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौकाद्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभांति तर जाएगा | भावार्थ : साधनाके माध्यमसे हम अपने सारे कर्मोंके कर्मफलको भस्म कर […]

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A self realized soul


यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ श्रीमदभगवद्गीता (२:४६) yaVanarth udaPaane sarvatah samPlutodake Tavannsarveshu vedeshu braahaManasya viJaanatah – Shrimad Bhagvad Gita (2.46) Meaning: To the Brahmana who has known the Self, all the Vedas are of as much use as is a reservoir of water in a place where there is a […]

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गीता सार


नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ – श्रीमद भगवद्गीता (६:१६) अर्थ :  हे अर्जुन! यह योग न तो अत्यधिक अत्यधिक भोजन करनेवालेका,  न निराहारका,  न अत्यधिक शयन करनेके स्वभाववालेका और न सदा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है | युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ – श्रीमद […]

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गीता सार


यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ श्री मदभगवद्गीता (४:२२) अर्थ  : जो बिना इच्छाके स्वतः प्राप्त हुए वस्तुओंसे सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्याका सर्वथा अभाव हो गया हो, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वोंसे सर्वथा अतीत (विमुक्त) हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धिमें सम रहनेवाला कर्मयोगी, कर्म करता हुआ भी […]

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Essence of Gita


आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं- समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ – श्रीमद भगवद्गीता (२.७०) Aapooryamaanam achalapratishtham Samudramaapah pravishanti yadwat; Tadwat kaamaa yam pravishanti sarve Sa shaantimaapnoti na kaamakaami. Meaning: He attains peace, into whom all desires enter as waters enter the ocean, which, filled from all sides, remains unmoved; but not […]

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