नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ – श्रीमद भगवद्गीता (६:१६)
अर्थ : हे अर्जुन! यह योग न तो अत्यधिक अत्यधिक भोजन करनेवालेका, न निराहारका, न अत्यधिक शयन करनेके स्वभाववालेका और न सदा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है |
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ – श्रीमद भगवद्गीता (६:१७)
अर्थ : दुःखोंका नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है |
भावार्थ : इन दोनों श्लोकोंके माध्यमसे भगवान श्रीकृष्ण यह बताना चाहते हैं कि किसी भी वस्तुमें ‘अति’का होना हमारे लिए हानिकारक है और वह भी साधक प्रवृत्तिवाले व्यक्तिके लिए तो यह घातक ही है | अपने प्रवृत्ति अनुसार सहज होकर मध्य मार्ग अपनाते हुए साधना करना ही योग्य है | अत्यधिक भोजन करनेका भावार्थ है – इंद्रियोंका विषय वासनामें अत्यधिक लिप्त होना और उस कारण जीव बद्ध हो जाता है | उसी प्रकार हठयोग करनेसे भी विशेष उपलबद्धियां प्राप्त नहीं होती है | अपनी प्रकृतिका विचार कर सहज होकर अपने ध्येयपर दृष्टि केन्द्रित कर, साधना करना ही योग्य है |
हमारे धर्मशास्त्रोंमें प्रत्येक आश्रम एवं भिन्न प्रकृतिके व्यक्तिके लिए भिन्न आहार–विहार, वर्तन एवं कर्तव्योंका विस्तारपूर्वक विश्लेषण दिया गया है; अतः हम उसका पालन कर, योग्य प्रकारसे आचरण कर ईश्वरको सहज ही प्राप्त कर सकते हैं |
अपनी प्रकृतिके विरुद्ध हठ कर हम कुछ समय ही अपने आपको भ्रमित कर सकते हैं; अतः धर्मशास्त्रोंका अभ्यास कर योग्य प्रकारसे आचरण कर हम सहज ही योगारूढ हो सकते हैं |
-तनुजा ठाकुर
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