सूक्ष्म देहकी उत्तरोतर सूक्ष्म संरचना


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इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ – श्रीमदभगवद्गीता ३.४२

अर्थ : इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे परे अर्थात श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियोंसे परे मन है, मनसे भी परे बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त परे जो है वह आत्मा है |

भावार्थ : यहां भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य देहके स्थूल, उसकी सूक्ष्म संरचना एवं उसकी विशेषता बता रहे हैं | स्थूल देह और इंद्रियोंके साथ ही मन, बुद्धि, एवं आत्मा मिलकर ही सम्पूर्ण मनुष्य देह बनता है | स्थूल देह और इंद्रियोंको हम इन स्थूल आंखोंसे देख सकते हैं; मन, बुद्धि और आत्माको हम देख नहीं सकते; परंतु उनका अस्तित्त्व तो होता ही है | पूरे शरीरके टुकडे टुकडे कर दें तो भी मन नहीं दिखाई देगा; किन्तु शरीरको चोट लगनेपर मनको दुख तो होता ही है अर्थात मनका अस्तित्त्व तो है | उसी प्रकार मनसे अधिक सूक्ष्म बुद्धि है जैसे कोई मित्र मद्यपान पीनेके लिए उद्युक्त करते हुए कहता है एक बार मद्यपान करनेसे कुछ नहीं होता अतः इसे आजके दिन तो पियो तब जिनकी बुद्धि सात्त्विक है उसे तुरंत बुद्धिसे समझमें आता है कि मद्यपानके व्यसनके ग्रस्त सभी व्यक्ति, पहली बार उसे पीनेके पश्चात ही पुनः पीने लगे और उन्हें उसका व्यसन लगा गया और मद्य तमोगुणी है अतः मुझे उसका पान नहीं करना है और वह व्यक्ति, उसके अभिन्न मित्रके कहनेपर भी वह मद्यपान नहीं करता, वहीं जिस व्यक्तिकी बुद्धि सात्त्विक नहीं होती अर्थात विवेक जागृत नहीं होता, वह मित्रोंकी चिकनी-चुपडी बातोंमें आकर मद्यपान कर लेता है, ध्यान रहे सात्त्विक बुद्धि ही मनसे अधिक सूक्ष्म होती है और मनको नियंत्रित कर योग्य दिशा दे सकती है | अन्यथा मन, बुद्धिपर हावी हो जाता है, सिगरेटपर लिखा रहता है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्यके लिए हानिकारक है और पीनेवाले उसे पढ भी लेते हैं; परंतु बुद्धिके सात्त्विक न होनेके कारण वे मनके वशमें चले जाते हैं और यह अनमोल मनुष्य देह जिसका उपयोग साधना हेतु करना चाहिए उससे वह सिगरेट पीकर रोगग्रस्त कर देते हैं | जो भी व्यक्ति मनका अभ्यास बुद्धिसे कर उसे योग्य दिशा देते हुए आगे बढता है वह अपना कल्याण करनेमें सक्षम तो होता ही है, उसमें जग कल्याणका भी सामर्थ्य निर्माण हो जाता है | और जो मनके वशमें होता है वह इंद्रियोंके वशमें सहज ही चला जाता है और माया-मोहमें जकडा रहता है | अतः मनका अभ्यास कर, मनपर विजयी पानेवाले खरे अर्थमें योद्धा होते हैं और इसके लिए सात्त्विक बुद्धिका होना परम आवश्यक है | बुद्धिका सात्त्विक होनेके लिए संत रचित ग्रंथ पढना, सत्संगमें जाना, साधना करना, संतोंके सान्निध्यमें रहना, अपने आचार–विचार, व्यवहारको सात्त्विक रखते हेतु हिन्दु धर्म अनुसार आचरण करना, भोजन, वस्त्र इत्यादि सात्त्विक पहनना जैसी कृति करना चाहिए | जब भी मन स्वयंको भ्रमित करे अपनेसे अधिक आध्यात्मिक रूपसे उन्नत व्यक्तिसे सुझाव लेना चाहिए | जैसे-जैसे बुद्धि सात्त्विक होने लगती है और मन नियंत्रित होने लगता है और हमारा अहं कम होने लगता है | ध्यान रहे, मन और बुद्धिके अस्तित्त्वके कारण ही अहं होता है जैसे ही मन और बुद्धिका लय हो जाता है वैसे ही व्यक्ति आत्मज्ञानी हो जाता है | आत्मतत्त्व बुद्धिसे भी सूक्ष्म है अतः उसके साक्षात्कार हेतु मन बुद्धि और अहंके साथ यह प्रक्रिया करना परम आवश्यक हो जाता है |-तनुजा ठाकुर

 



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