नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥
अर्थ : न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरुषमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्यके अन्तःकरणमें भावना भी नहीं होता तथा भावनाहीन मनुष्यको शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है ?
भावार्थ : जिस व्यक्तिका मन सतत विषय-वासनोंमें आसक्त हो उसमें विवेक जागृत हो ही नहीं सकता | निश्चयात्मिक बुद्धि अर्थात विवेक है | उपरोक्त श्लोकमें भावना शब्दका भावार्थ ‘भाव’ से है जिसके मनमें वासनाओंका प्राबल्य हो उसमें ईश्वरके प्रति भाव कैसे जागृत हो सकता है ? शांतिकी प्राप्ति हेतु साधना करना आवश्यक है; क्योंकि सांसारिक विषयोंसे क्षणिक सुख मिल सकता है, चिरंतन आनंद और शांतिकी प्राप्ति नहीं होती | सुखसे प्राप्त वस्तु ही दुखका कारण होता है जैसे पुत्रकी प्राप्तिपर सुख प्राप्त होता है और पुत्र सदैव अस्वस्थ रहता हो तो दुख प्राप्त होता है | आनंद और शांतिकी प्राप्ति तभी संभव है अब साधक भावयुक्त साधना और भक्ति करता है, वस्तुतः ऐसे ही व्यक्तिको शांति मिल सकती है | संसारके कितने भी सुख और साधन उपलब्ध हों यदि व्यक्तिका मन शांत नहीं होता तो वह खरे अर्थोंमें वह सुखी नहीं होता ! अशांत मनुष्य किसी भी निर्जन स्थानपर जाए या राजप्रसादमें रहे उसे सुखकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है | – तनुजा ठाकुर
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