सूक्ष्मके ज्ञान हेतु मनोलय एवं बुद्धिलय होना है अति आवश्यक


कुछ दिवस पूर्व मैं आश्रमके निर्माण कार्यसे सम्बन्धित कुछ वस्तु क्रय करने इंदौर गई थी । हमें एक ऐसे स्थानपर जाना था जहां मैं चार-पांच बार पहले भी जा चुकी थी । हमने एक कार्यकर्तासे पूछा कि हम अमुक-अमुक स्थानपर इंदौरमें हैं तो क्या बताएंगे कि हम वहां किस मार्गसे जाएं ?
तो वे प्रतिक्रिया देते हुए बोले, “आप इतनी बार तो वहां जा चुकी हैं तो आप पुनः क्यों पूछ रही हैं ?”
मुझे इस प्रसंगसे भान हुआ कि मेरी स्मरण शक्ति, जिसपर मुझे बहुत गर्व था, अब वह ईश्वरीय कृपासे मायाकी बातें ग्रहण नहीं करती हैं । मैंने इसके लिए ईश्वरको कृतज्ञता व्यक्त की । आपको यह पढकर थोडा अटपटा लग रहा होगा; इसलिए इस प्रसंगके पीछेका अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण बताती हूं ।
मैंने जब प्रथम बार अपने श्रीगुरुद्वारा संकलित ग्रन्थका अध्ययन किया तो उनके सूक्ष्म ज्ञानसे अभिभूत हो गई । मुझे भी वह ज्ञान चाहिए था । मैंने उनके ग्रन्थों, प्रवचन व सत्संगके ध्वनिमुद्रित विषयोंका अभ्यास आरम्भ कर दिया ।
उन सत्संगोंसे मुझे समझमें आया कि हम जितना अधिक विश्वमन व विश्वबुद्धिसे एकरूप होंगे, हमारा सूक्ष्मका ज्ञान उतना ही समृद्ध होता जाएगा । इस हेतु मुझे जो करना चाहिए, इसकी मैंने उनकेद्वारा प्रदत्त ज्ञानसे एक सूची बनाई, वह यहां आपसे इतने वर्षोंके पश्चात आज ईश्वर आज्ञा अनुरूप साझा कर रही हूं; क्योंकि हो सकता है आपमेंसे भी कुछ लोगोंको सूक्ष्म ज्ञान पानेकी रुचि हो और इनका अभ्यास करनेसे आपको भी लाभ मिले ।
१. सूक्ष्मका पूर्ण, विशुद्ध एवं वैदिक ज्ञान मात्र और मात्र परात्पर पदके सन्त दे सकते हैं; अतः ऐसे सन्तोंकी कृपा पानेका प्रयास करने हेतु उनका मन जीतना चाहिए । मैं उसी दिनसे आजतक मेरे श्रीगुरुको साक्षी मानकर उन्हें जो प्रिय लगेगा, वही सदैव करनेका प्रयास करती हूं ।
२. जबतक हम ईश्वर या गुरुको अपना सर्वस्व अर्पण नहीं करते हैं, ईश्वर हमें अपना सम्पूर्ण ज्ञान नहीं देते हैं; इसलिए तबसे मैं सर्वप्रथम अपना सांसारिक जीवन त्यागकर मात्र गुरुके आदेश अनुसार साधना करने लगी एवं मई २००८ से ईश्वरके आदेश अनुसार साधना करने लगी । मेरे जीवनमें अनेक बार ऐसी परिस्थितियां निर्मित हुईं, जब गुरु या ईश्वरकी आज्ञा पालन करना मेरे लिए यदि असम्भव नहीं तो अत्यधिक चुनौतीपूर्ण था; किन्तु अपने लक्ष्यका ध्यानकर मैंने गुरुकी आज्ञा या ईश्वरेच्छाको ही प्राथमिकता दी ।
३. सूक्ष्मके ज्ञान हेतु हमारा सात्त्विक रहना आवश्यक होता है; क्योंकि शास्त्र है कि हम जितना सात्त्विक रहेंगे, मन एवं बुद्धि पर उतना ही तमोगुण का आवरण न्यून होगा और विश्वमन एवं विश्वबुद्धिसे सूक्ष्मका ज्ञान उतनी ही सरलतासे प्राप्त होगा । इसलिए यथाशक्ति सात्त्विक रहनेका प्रयास आरम्भ कर दिया, जो आजके कालमें, वह भी एक समष्टि साधना करनेवालेके लिए, जिसे अनेक बार सामान्य व्यक्तिके घर रहना पडता हो, उसके लिए बहुत ही कठिन है; क्योंकि आज सामान्य व्यक्तिका जीवन धर्म शिक्षणके अभावके कारण तमोगुणी हो गया है ।
४. सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य जो मुझे ज्ञात हुआ वह यह था कि हम अपने बुद्धि और मनका जितना अल्प उपयोग करेंगे, हमारा मनोलय उतना ही शीघ्र होगा; इसलिए गुरुकी आज्ञाका भावपूर्ण व कृतज्ञताके भावसे पालन करना एवं अनावश्यक विषयोंको स्मरण न रखना, विषयोंकी लिखकर रखना, दोष व अहं निर्मूलन करना, गुरुगृहमें रहकर सेवा करना, इनका अनुसरण करना आरम्भ किया ।
इसीके अन्तर्गत मार्गको स्मरण रखना इत्यादि भी मेरी ओरसे हटता गया । इसलिए उस दिवस उस कार्यकर्ताकी प्रतिक्रियाको सुनकर मैंने ईश्वरको अपनी कृतज्ञता व्यक्त की ।
मां सरस्वतीकी कृपासे मेरी स्मरणशक्ति इतनी अच्छी थी कि मुझे विद्यालय या महाविद्यालयमें अपने पाठ्यक्रमकी पुस्तकोंको स्मरण करने हेतु अधिक समय नहीं देना पडता था । मेरी स्मरणशक्ति सूक्ष्म ज्ञान पानेकी प्रक्रियामें एक अवरोध बनेगी, यह जानकर मैंने इस दिशामें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरपर बहुत प्रयास किए और आज गुरुकृपासे मुझे जो अत्यधिक आवश्यक होता है वही मेरी स्मृतिमें रहता है अर्थात अब बुद्धि इस प्रकार अभ्यस्त हो गई है कि उसे ज्ञात होने लगा है कि क्या स्मरण रखना चाहिए और क्या नहीं ? इससे मन अधिकसे अधिक समय निर्विचार अवस्थामें रहता है या उपासनाके कार्य निमित्त जो आवश्यक है, उतने ही विचार स्मृतिमें रहते हैं, इससे मन अधिक समय आनन्दी भी रहता है ।



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