उपासनाके कुछ साधकोंने नियमित अग्निहोत्र करना आरम्भ किया है । अग्निहोत्रके पश्चात जो भस्म या विभूति बनती है, उसका सदुपयोग कैसे कर सकते हैं ? उसके विषयमें यह लेखमाला है ।
अग्निहोत्र समाप्त होनेके दो घण्टे पश्चात उसके भस्मको एक डिब्बेमें बन्दकर पूजाघर या किसी स्वच्छ स्थानपर रख दें । रात्रिमें अग्निहोत्रके भस्मको खुला बाहर न छोडें, इससे उसपर रात्रिके रज-तमका आवरण निर्मित हो जाता है और उसकी शक्ति घट जाती है ।
अग्निहोत्रके ताम्रपात्रको भी नियमित अर्थात प्रतिदिन प्रातः स्वच्छ किया करें, इससे भी भस्मकी शक्ति और बढ जाती है । जैसे आपको पहले बताया था कि इसे स्वच्छ स्थानपर किया करें एवं प्रातः स्नान इत्यादि करके ही किया करें । शौचादि यदि जाते हैं तो सन्ध्या समय भी स्नान करके ही अग्निहोत्र करें । यदि पुरुषका उपनयन संस्कार हो चुका हो तो वे जनेऊ धारण करके ही इसे किया करें । मेरे कहनेका अर्थ है कि आप जितना अधिक सात्त्विक एवं भावसे उसे करेंगे उतनी ही अधिक शक्ति इसके भस्ममें निर्मित होगी ।
आज आपको अग्निहोत्रके भस्मका एक उपयोग बताते हैं ।
अग्निहोत्रके भस्मको हाथसे बारीक कर लें इसके पश्चात उसे एक आटा छाननेवाली छन्नीसे छान लें एवं उसके जो चावलके भस्म बच जाते हैं उसे खलबत्तेसे बारीक कूट लें और पुनः छन्नीसे छान कर अग्निहोत्रके भस्ममें मिला दें ! शेष बचे हुए भस्मको अपने गमलेमें डाल दें ।
अब इस छनी हुई भस्मको प्रतिदिन अपने जल पीनेवाले घडेमें डाल दें ! १० लीटर जलमें पौन चम्मच भस्म डाल दें और इसे ही दिनभर ग्रहण किया करें । पीने योग्य जलको संग्रहित करने हेतु ग्रीष्म ऋतुमें मिट्टीके घडेका एवं शरद ऋतुमें ताम्बेके पात्रका उपयोग करना अधिक उचित होता है और ऐसे दस लीटरवाले पात्रमें आप अग्निहोत्रकी भस्म, पांच बूंद गोमूत्र एवं पांच तुलसीके पत्र डाल दिया करें । ऐसे जलको नियमित ग्रहण करनेसे आपके व आपके परिवारके शारीरिक एवं मानसिक कष्ट तो घटेंगे ही साथ ही इस जलमें आध्यात्मिक शक्ति होनेके कारण इससे आपके शरीरमें अनिष्ट शक्तियोंद्वारा निर्मित स्थान व काली शक्ति घटेगी, साथ ही इससे आपके मन एवं बुद्धिपर निर्मित सूक्ष्म काला आवरण भी नष्ट होगा ।
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