दीक्षा तो सतशिष्यको मिलती है !


ख्रिस्ताब्द २०१३ में विदेश धर्मयात्राके मध्य एक व्यक्तिने नेपालमें एक प्रवचनका आयोजन करवाया था | उन्होंने कहा कि कल आप जहां जाएंगी वहां कुछ स्त्रियां आपसे दीक्षा लेनेको इच्छुक होंगी | मैंने कहा “परंतु वे मुझे कहां जानती हैं जो वे मुझसे दीक्षा लेने लगीं” | उन्होंने कहा “मैंने अच्छी ‘मार्केटिंग’ की है आपकी” !! मैंने कहा “मार्केटिंगसे मिले व्यक्ति, कभी शिष्य बन ही नहीं पाएंगे” !
दीक्षा तो सतशिष्यको मिलती है ! शिष्य बननेसे पूर्व उसने एक अच्छा साधक होना चाहिए, गुरुके प्रति अप्रतिम भाव , शरणागति, त्याग, सेवाभाव, आज्ञापालन जैसे दिव्य गुण होने चाहिए ! अच्छा साधकसे पूर्व उसने एक मुमुक्षु होना चाहिए और मुमुक्षु से पूर्व एक जिज्ञासु होना अपेक्षित है |
मुझे दीक्षा देकर भीड एकत्रित थोडे ही करना है ! मेरा उद्देश्य समाजमें साधकत्व निर्माण करना है, खरे साधकोंको सद्गुरु स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं अर्थात्उनके गुरुका उनके जीवनमें स्वतः ही पदार्पण हो जाता है !
और प्रवचनके पश्चात मैंने पाया कि वहां उपस्थित एकमें भी शिष्य तो अत्यधिक दूरकी बात है, किसीमें मुमुक्षुत्व भी नहीं था, वे तो मात्र अपनी संस्थाके प्रोफ़ाइलमें एक और कार्यक्रमका नाम जोडने हेतु मेरा कार्यक्रम करवा रहे थे !  – तनुजा ठाकुर



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