क्या अध्यात्मविदका गेरुआ वस्त्र धारण करना आवश्यक है ?


उत्तर : अनेक लोगोंको लगता है कि गेरुआ वस्त्रधारी ही संत या धर्म हेतु मार्गदर्शन करनेवाले हो सकते हैं | यह भी धर्मशिक्षणके अभावमें समाजमें व्याप्त एक त्रुटिपूर्ण धारणा है | संत तुलसीदासने कहा है, ‘समरथ को नहीं दोष गोसाई’, अर्थात जो आध्यात्मिक दृष्टिसे सामर्थ्यवान होते हैं, उनके लिए कर्मकांडके या धर्माचरणके नियम लागू नहीं होते | सामान्य व्यक्ति एवं साधकको (२० से ५९% आध्यात्मिक स्तर) भारतीय परिधान और सात्त्विक रंगके सूती और आर्थिक क्षमता हो तो रेशमी वस्त्र धारण करने चाहिए | काले, हरे बैंगनी, भूरा इत्यादि गहरे रंग आध्यात्मिक दृष्टिसे साधककी साधनाके लिए पोषक नहीं होते | सिंथेटिक अर्थात कृत्रिम धागेसे बने पाश्चात्य संस्कृतिके वस्त्र भी साधना हेतु पोषक नहीं होते और नैसर्गिक धागोंसे बने भारतीय परिधान वस्त्र (जैसे स्त्रीयोंके लिए साड़ी और पुरुषोंके धोती-कुर्ता), देवताके तत्त्वको आकृष्ट करनेकी क्षमता रखते हैं,अनिष्ट शक्तिसे हमारा रक्षण करते हैं और इससे साधकके ऊपर संरक्षक-कवच बनता है |
६०% आध्यात्मिक स्तरसे ऊपरके व्यक्तिके लिए विशेष रंग या वस्त्रके धागेका विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि ऐसे जीवात्मा आंतरिक स्तरपर ईश्वरीय तत्त्वसे अधिकसे अधिक समय जुड़े रहने लगते हैं | संत तो २४ घंटे ईश्वरीय तत्त्वसे जुड़े होते हैं, ऐसेमें वस्त्र कोई भी हो, उससे अध्यात्मविदद्वारा प्रक्षेपित शक्ति या आनंदमें कोई विशेष अंतर नहीं होता | संतका स्तर जितना अधिक होता है, उतना ही बाह्य वस्तुका उनपर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता | अतः साधकको अपनी साधना बढ़ानेपर और संतोंने किस प्रकार अपने गुरुकी सेवाकी, साधनाकी, इनपर ध्यान देना चाहिए न कि उनके बाह्य वेषभूषा पर | सामने वाला व्यक्ति संत है या नहीं, उन्हें पहचानने हेतु अपनी साधना बढ़ानी चाहिए | गेरुआ वस्त्रधारी सन्यासी भी संत हो सकते हैं और एक साधारण वेशभूषा धारण करनेवाले व्यक्ति भी अध्यात्मविद या धर्म-शिक्षण देनेवाले गुरु या संत हो सकते हैं | -( परात्पर गुरु) तनुजा ठाकुर

 



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