ईश्वरीय कार्यमें या धर्म कार्यमें अपने धनका दशांश अर्पण करनेपर ही वह शुद्ध होता है !


स्कन्द पुराणमें लिखा है कि धर्मका आधार लेकर भी जो अर्थोपार्जन (धन कमाना) किया जाता है, वह भी ईश्वरीय कार्यमें या धर्म कार्यमें दशांश अर्पण करनेपर ही शुद्ध होता है । आज अनेक गृहस्थ अपने सुख-ऐश्वर्य, बच्चोंके लिए लाखों रुपए व्यय (खर्च) करते हैं, परन्तु धनका त्याग धर्म कार्य हेतु नहीं करते और वही धन, दुर्घटना, रोग, चोरी इत्यादिमें स्वतः ही ब्याजके साथ व्यय हो जाता है और उन कष्टोंसे मनको जो क्लेश मिलता उसे तो छोड ही दें ! जिस अंशपर हमारा नहीं ईश्वरका अधिकार होता है और जब उसका उपयोग हम लोभवश करते हैं तो उसकी भरपाई तो ब्याजके साथ करनी ही पडती है ।
कुछ व्यक्तिको जब मैं कहती हूंं कि साधनाका अर्थ है – तन, मन और धनका त्याग तो वे झटसे कहते हैं, तन और मनसे क्या कर सकते हैं ?, यह बताएं ! धनके त्यागका नाम सुन कर ही वे डर जाते हैं ! जो व्यक्ति स्थूल धनका त्याग नहीं कर सकता जो ईश्वर प्रदत्त है, वह सूक्ष्मसे मन , बुद्धि और अहंका क्या त्याग करेंगे !!! – तनुजा ठाकुर


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