कोई वस्तु अनुपयोगी नहीं


charak-maharishi

आयुर्वेदके महान ज्ञाता महर्षि चरकके आश्रमके पास स्थित वनमें अनेकानेक वनस्पतियां थीं । वे शिष्योंको लेकर प्रत्येक पूर्णिमाकी रात्रि वनमें निकल जाते थे । वहां वे शिष्योंको विविध प्रकारकी औषधियोंका ज्ञान कराते थे । रात्रिमें हिंसक पशुओंकी भयावह ध्वनिसे डरकर कुछ विद्यार्थी भाग जाते । तब चरक कहते, “अच्छा हुआ कायर भाग गए । जो मृत्युसे डर जाए, वह क्या वैद्य बनेगा ? वैद्यका तो कार्य ही मृत्युसे लडना है ।”

चरककी परीक्षा अत्यन्त कठिन होती थी । उनके सहस्रों (हजारों) शिष्योंमेंसे कुछ ही उत्तीर्ण हो पाते थे ।

एक बार चरकने परीक्षा लेते हुए कहा, “तुम सभीको ३० दिनोंमें सम्पूर्ण वनमें घूमकर उन वनस्पतियोंको लाना होगा, जिनका आयुर्वेदमें उपयोग नहीं होता अर्थात जो व्यर्थ हैं । कुछ विद्यार्थियोंको कंटीली झाडियां और घास-फूस व्यर्थ लगे । कुछने पत्तियों व वृक्षकी छालोंको एकत्रित किया । कुछ अन्यने अधिक परिश्रमकर विषैली फलियां व मूल (जडें) खोज निकालीं । उनतीसवें दिवस सभीने अपनी-अपनी वनस्पतियां चरकको दिखाईं । चरकने कुछ वनस्पतियोंसे बननेवाली औषधियां बताईं तो कुछके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की ।

तीसवें दिवस उनका अन्तिम शिष्य रिक्त हाथ लौटा और बोला, “गुरुदेव ! मुझे एक भी ऐसी वनस्पति नहीं मिली, जो आयुर्वेदकी दृष्टिसे उपयोगी न हो ।”

इसपर सभी शिष्य हंस पडे; किन्तु चरकने घोषणा की, “इस वर्ष यही छात्र उत्तीर्ण हुआ । वस्तुतः वनमें ऐसी कोई वनस्पति नहीं है, जो व्यर्थ हो । यदि किसीका हम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह है कि हम अबतक उसके गुणोंका अभिज्ञान (पहचान) नहीं कर पाए हैं ।”

कथाका सार यह है कि गहनतासे शोध करनेपर प्रत्येक वस्तुका कोई न कोई उपयोग मिल ही जाता है । इसी प्रकार धर्मकार्यमें अथवा साधना-मार्गमें प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक अवसर आदि सभी कुछ महत्त्वपूर्ण है ।



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