प्रेरक प्रसंग – यज्ञोपवीतके लिए अनूठा बलिदान


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यह प्रसंग उन सभी जन्म ब्राह्मणोंके लिए प्रेरणा देनेवाला प्रसंग है, जो स्वयंको ब्राह्मण कहनेमें तो गर्व करते हैं परन्तु ब्राह्मणवाले संस्कारोंका पालन नहीं करते हैं ! आजकी विडम्बना यह है कि सोलह संस्कारोंमें से तीन या चार संस्कार ही किये जाते हैं और इससे सम्बंधित आचारधर्मका पालन नहीं किया जाता है | मैंने अनेक जन्म ब्राह्मणोंको देखा है कि वे उपनयन संस्कारके पश्चात् अपना जेनऊ हटा देते हैं, उनके लिए जेनऊ धारण करना एक बोझ लगता है, जबकि यह तो एक श्रेष्ठ संस्कार है जिससे पुरुषको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ होता है परन्तु धर्मशिक्षणके अभावमें आजके जन्म ब्राह्मणोंको इसका महत्त्व ज्ञात ही नहीं है !

पंजाबके क्रांतिकारी युवक पण्डित रामरक्खाको ब्रिटिश-राज्यके विरुद्ध विद्रोह भडकानेके गंभीर आरोपमें आजीवन कारावासका दण्ड देकर अंडमानके (कालापानीके) कारागृह भेजा गया । अंडमान कारागृह पंहुचते ही जेलरने उनके गलेमें सुसज्जित यज्ञोपवीतको (जनेऊको) निकालनेका आदेश दिया । रामरक्खाने कहा – ‘जनेऊ हम ब्राह्मणोंका धार्मिक चिह्न है । मैं इसे धारण किए बिना पानी तक नहीं पी सकता ।’ अंग्रेज ‘जेलर’के आदेशपर ‘वार्डनों’ने उन्हें पकड लिया तथा बलपूर्वक यज्ञोपवीत उनके गलेसे निकालकर फेंक दिया। रामरक्खा उसी समयसे यज्ञोपवीत फेंके जानेके विरोधमें अनशनपर बैठ गए । वीर सावरकर, भाई परमानन्द तथा अन्य अनेक क्रान्तिकारी भी उसी कारागृहमें बंद थे । सभीने रामरक्खासे प्राणरक्षाका आग्रह किया तथा परामर्श दिया कि अन्न ग्रहण कर लें और अपना जनेऊ धारण करनेकी मांग करते रहें; किंतु ये दृढव्रती स्वाभिमानी धर्मवीर अन्न–जल ग्रहण करनेको सिद्ध नहीं हुए । लगभग बीस दिनतक अनशन करनेके उपरान्त उन्होंने अंडमान कारागृहमें अपने यज्ञोपवीत धारण करनेके धार्मिक अधिकारकी रक्षाके लिए प्राण त्याग दिए ।

उनके इस अनूठे बलिदानकी चर्चा भारतके समाचारपत्रोंमें हुई । उनके प्राणोत्सर्गका यह परिणाम निकला कि कारागृहमें भारतीय बंदियोंको यज्ञोपवीत धारण करनेकी अनुमति मिल गई ।



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