साधना, साधक एवं उन्नतसे सम्बन्धित प्रसार संस्मरण (भाग – ६)


ख्रिस्ताब्द २०१२ में पटनामें एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारीने फेसबुकके माध्यमसे मुझसे अपनी शंकाओंके समाधान हेतु सम्पर्क किया और इस प्रकार वे ‘उपासना’से जुड गए | जब मैं झारखण्डमें अपने गांव लौटती थी तो पटनामें उनके घर रुकना होता था, मैं सम्भवतः पांच-छः बार उनके घरमें रुकी होउंगी । दोनों पति-पत्नीको अपने अधिकारी होनेका अत्यधिक अहं था, विशेषकर पत्नीको ‘अधिकारीकी पत्नी’ होनेका अधिक अहम् था; परन्तु मैं आरम्भमें किसी भी व्यक्तिके दोष और अहंपर ध्यान न देकर, उनको गुणोंको देखकर, उनसे प्रेम करती हूं और वे साधना कैसे कर सकते हैं, इसपर अधिक ध्यान देती हूं । साथ ही उत्तर भारतीयोंमें साधकत्वका प्रमाण नगण्य ही होता है; मैं यह सब पिछले अनेक वर्षोंसे झेलते-झेलते अब इसकी  अभ्यस्त हो चुकी हूं । मैं सभीको साधनाका दृष्टिकोण देकर, उन्हें साधना सिखानेका यथासम्भव प्रयास करती हूं और जब कुछ समय सर्वप्रयास कर, उनमें कुछ भी परिवर्तन नहीं आता है तो मैं आगे बढ जाती हूं । अधिकांश साधक जो ‘उपासना’से जुडे हैं, उनमें  ९९ % साधक ऐसे हैं अपनी वैयक्तिक स्वार्थ सिद्धि हेतु ही मुझसे जुडे थे और धीरे-धीरे उन्हें दृष्टिकोण देकर, उनमें साधकत्वका बीजारोपण कर, उन्हें उनके जीवनका ध्येय समझानेका प्रयास किया है और अब अनेक साधक निष्काम भावसे व्यष्टि और समष्टि साधना करने लगे हैं, यह ईश्वरकी कृपा है । पटनाका यह दम्पति भी अपने ‘कलेक्टर’के पदकी प्रोन्नत्ति हेतु मुझे जुडे थे । मैंने उन्हें साधना बताई, वे दोनों सकाम ही सही योग्य साधना अन्तर्गत नामजप और अल्प प्रमाणमें धर्मप्रसार भी कर रहे थे । एक दिवस, उनके नीचे कार्य करनेवाले एक अधिकारीने, उनके आग्रहपर अपने घर प्रवचन रखवाई, जब मैं उस दम्पतिके घरसे प्रवचन हेतु जाने लगी तो देखा कि वे दोनों पति-पत्नी जिन्होंने उस प्रवचनका आयोजन करवाया था, वे मेरे साथ नहीं आए, मैंने उनसे कारण पूछा तो पत्नी झटसे बोलीं “हम अपनेसे नीचेके अधिकारीके घर कैसे जा सकते हैं ?”  मैंने उनसे कुछ नहीं कहा और प्रवचनमें चली गई ।
योग्य साधना एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोणके अभावमें विशेषकर प्रशासनिक अधिकारीयोंको अपने पदका अत्यधिक अहं होता है, ऐसा मैंने पाया है | मैं भी कभी भ्रष्टाचारियोंको पाठ पढाने हेतु  प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहती थी; किन्तु श्रीगुरुके प्रथम साक्षात्कारके समय मुझसे कहा, “अच्छा हुआ, आप अभी तक प्रशासनिक अधिकारी नहीं बने हैं, अन्यथा आपको  कैसे-कैसे भ्रष्ट नेताओंके शरणमें सेवा करनी पडती |” मेरे श्रीगुरुके इस अमृतवचनने मेरे अन्तर्मनसे प्रशासनिक अधिकारी बननेका संस्कार ही नष्ट कर दिया; किन्तु जब प्रशासनिक अधिकारियोंके पदविषयक अहंकारको देखती हूं तो अपने श्रीगुरुको कोटिश: कृतज्ञता व्यक्त करती हूं कि उन्होंने मेरे अहंको बढनेसे मुझे बचा लिया | धर्मप्रसारके मध्य मेरी अनेक प्रशासनिक अधिकारीयोंको भेंट ही नहीं अपितु मित्रवत परिचय भी रहा है; किन्तु मैंने ९० प्रतिशत अधिकारीयोंके अहंको  सातवें आकाशको छूते हुए पाया है | इस सम्बन्धमें एक सरल सा समीकरण देखनेको मिला है जितना बडा पद, उतना ही अधिक अहंकार ! वैसे मेरे साथ सभीने अत्यधिक विनम्रताका परिचय देते हुए वर्तन किया है; किन्तु उनकी बातोंमें अहंकारके स्पष्ट संकेत मिलते रहते हैं, वैसे मैं ‘अहंकारियों’के साथ भी घुलमिल भी जाती हूं, मात्र मुझे उनके अहंकारको थोडी हवा देनी होती है | जैसी देवता वैसी पूजा, मैं उस सिद्धांतमें पूर्णत: विश्वास रखती हूं और आवश्यकता पडनेपर मानसशास्त्रका प्रयोग करती हूं; अतः मुझे कभी उनसे कोई वैयक्तिक समस्या नहीं हुई है; अपितु सभीने अतिशय मान-सम्मान दिया है, यह भी कहना चाहूंगी | ऐसे सभी अधिकारीवर्गको आज एक छोटा सा सन्देश इस लेखके माध्यमसे देना चाहूंगी, आपको आपका उच्च पद आपकी योग्यताके कारण निश्चित ही मिला है; किन्तु ब्रह्माण्ड स्तरपर जब आप अपनी योग्यता और पदको देखेंगे तो पायेंगे कि आपका योग्यता मात्र मायासे सम्बन्धित है और आपका पद भी चिरंतन नहीं है, यह इस नश्वर संसार समान ही अस्थायी है और जो शाश्वत नहीं है उसपर गर्व कैसा ? और दूसरी बात यह है अधिकारी होनेका अर्थ विशिष्ट सेवक होता है, उसे विशेष अधिकार, विशेष सेवा हेतु दिए जाते हैं और सेवक जितना विनम्र होता है, वह अपने स्वामीका उतना ही प्रिय होता है; अतः विनम्र रहकर अपने स्वामीके (ईश्वरके) प्रिय पात्र बनें, उनकी विशेष कृपा हेतु अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें और उस शाश्वत पदको पानेका प्रयास करें।
दो मास पश्चात् मैं पुनः अपनी धर्मयात्रा समाप्त कर, अपने गांव जानेवाली थी, तो उन दम्पतिने हमें पुनः अपने घर आग्रह कर एक रात्रि रुकनेके लिए कहा, मैं उनके घर रुक गई । एक विद्यार्थी साधक पटनामें रहता है, उसको मुझे कुछ महत्त्वपूर्ण कागद और प्रसार साहित्य देने थे; अतः वह मुझसे मिलने आया था । उस दिवस वर्षा हो रही थी और वह १० किलोमीटर साइकिल चलाकर आया था और थोडा भींग गया था, मैंने उससे कहा “आप टेम्पो या बससे क्यों नहीं आए ” तो उसने कहा “वे लोग जब तक वाहनमें ‘सवारी’भर न जाए तो  वाहन नहीं चलाते हैं, ऐसेमें अत्यधिक समय व्यर्थ हो जाता है; इसलिए मैं साइकिलसे आया हूं ।” जब वह जाने लगा तो रात्रिके साढे दस बज रहे थे और अत्यधिक वर्षा हो रही थी, मैंने अधिकारी दम्पतिको अप्रत्यक्ष रूपसे उन्हें अपने घर रोकने हेतु संकेत दिए; परन्तु वे उसे रुकवाना नहीं चाहते थे, उनका चार तल्ले घर था और नौ या दस कक्ष (कमरे) थे और दो कक्ष छोडकर सब खाली थे । वह विद्यार्थी उनके घर पहले भी बहुत बार आ चुका था और बहुत अच्छा साधक था, यह भी उन्होंने मान्य कर  अनेक बार उसकी स्तुति भी की थी । उस विद्यार्थी साधकको मेरी विवशता समझते देर नहीं लगी, वह चला गया, उसने बारह बजे अपने कक्षमें पहुंचकर मुझे दूरभाष किया और तब मैं सोई, उस रात्रि अत्यधिक तेज बरसातके कारण वह सम्पूर्ण रूपसे भींग चुका था | मार्गमें रात्रिमें गड्ढेमें जल भर जानेके कारण और प्रकाश न होनेसे वह सायकिल धीरे-धीरे चला रहा था  ।
ये अधिकारी महोदय रेलवे स्टेशनपर या वायुयानतलपर (हावी अड्डेपर) मुझे स्वयं लेने आते थे; मेरा बहुत सम्मान करते थे; मेरी सेवामें कोई कमी नहीं छोडते थे; किन्तु जब आप मांकी सन्तानकी आवश्यकता पडनेपर आप सहायता नहीं कर सकते हैं तो वह मां आपसे कैसे प्रेम कर सकती है ?, ‘उपासना’के सभी साधक मेरे लिए, मेरी सन्तान समान है, मैं अपना तिरस्कार तो सरलतासे सहन कर सकती हूं; किन्तु अपने बच्चोंका कदापि नहीं ?
मैं पुनः उन अधिकारी महोदयके घर कभी नहीं गई; क्योंकि जो एक साधकसे प्रेम नहीं कर सकता, ऐसे लोग सभी सजीव-निर्जीवसे कैसे प्रेम करेंगे ? वैसे वे रामकृष्ण मिशनसे जुडकर अनेक वर्षोंसे साधना कर रहे थे; परन्तु यदि इतने वर्षोंकी साधना यदि आपके भीतर प्रेम निर्माण न कर पाए हो, तो वह साधना व्यर्थ है !
एक और प्रसंग देखेंगे कुछ दिवस पूर्व उपासनाके देहलीके साधक श्री रवि गोएलके  कार्यालयमें कार्य करनेवाली एक साधिकाके भाईको अर्धरात्रि अत्यधिक कष्ट होने लगा, उनकी स्थिति अत्यधिक गम्भीर थी; परन्तु उन्हें अन्तःप्रेरणा हुई  और उन्होंने उनकी पत्नी श्रीमती अन्तिमा गोएलके भ्रमणभाषपर (मोबाइल) उसी समय सम्पर्क किया और उन्होंने, उन्हें नामजप एवं सर्व आध्यात्मिक  उपाय बताए जो मैं सभी साधकोंको बताती हूं, वे उसे बताए, जिससे उस साधिकाके भाईको त्वरित लाभ मिला और सम्पूर्ण रात्रि उनसे सम्पर्कमें रहकर उनकी स्थितिपर भी दृष्टि रखी, उस रात्रि मुझे उनका व्हाट्सएप आया था; परन्तु यूरोप, कनाडा, अमरीका एवं कुछ अन्य देशोंके लोग रात्रिमें  नमस्ते बोलते रहते थे; अतः मैंने सोचा उनमेंसे ही कोई होगा; इसलिए मैं जगी नहीं । इस दिवसके पश्चात् मैंने अपने वैयक्तिक चलभाषपर सभी साधकोंको कुछ भी अनावश्यक सन्देश नहीं डालनेका निर्देश दिया है और जागृत भव गुटमें इन्हीं कारणोंसे सभीको अनावश्यक सन्देश डालने हेतु मना करती हूं; क्योंकि आनेवाले आपातकालमें साधकोंको ऐसी स्थिति आनेपर उन्हें त्वरित यथोचित सहयोग दिया जा सके ।
वे साधिकाने एक सप्ताह पश्चात् जब अश्रम आयीं तो मुझे सर्व वृतान्त बताते हुए कहा, “यदि उस दिवस मेरी भाईकी सांसें अटक चुकी थी और अन्तिमा दीदीने हमारी सहायता नहीं की होती तो कुछ भी अनर्थ हो सकता था; किन्तु उन्होंने कहा आप चिंता न करें, हम ‘उपासना’ कुटुंबके सदस्य हैं, हमसे जो हो सकेगा वह अवश्य करेंगे, यह सुन मुझे अत्यधिक आनन्द आया !”
जब हम किसी आध्यात्मिक संस्थासे जुडते हैं, तो वहां ऊंच-नीचका भेदभाव नहीं होना चाहिए और सभीने एक दूसरेसे एक कुटुम्ब समान प्रेम करना चाहिए, इसे ही साधकत्व कहते हैं । अर्धरात्रि अपने साधकत्वका परिचय देनेवाली अन्तिमा गोएलका हार्दिक अभिनन्दन । – तनुजा ठाकुर (१२.११.२०१४ )

 



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