सत्संग दो प्रकारका होता है । एक होता है, बाह्य सत्संग और दूसरा होता है, आन्तरिक सत्संग । जब हमारा योग या जुडाव ईश्वरके साथ अखण्ड हो जाता है और उसका क्रम कभी भी नहीं टूटता है, उसे खरे अर्थमें सत्संग कहते हैं और इस प्रकारके सत्संगको आन्तरिक सत्संग कहते हैं । इस प्रकारके सत्संगमें सन्त या उच्च कोटिके उन्नत रहते हैं (जिनका अध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशतसे अधिक हो), वे सदा ईश्वरके संग जुडे रहते हैं, चाहे पूजा घरमें हों, मछली बाजारमें हों, श्मशान भूमिमें हों या ऐश्वर्यसे युक्त एक महलमें, उनका ईश्वरके साथ सहवास अखण्ड बना रहता है । बाह्य वातावरण उनके ईश्वरके साथकी अंतरंगता एवं अखण्डताको प्रभावित नहीं करता, परन्तु यह अध्यात्मके अत्यन्त उच्च स्तरपर साध्य होता है ।
साधारण मनुष्यके लिए या साधना आरम्भ करने वाले साधकोंके लिए यह सम्भव नहीं होता तो वे क्या करेंं ? जब तक हमें आन्तरिक सत्संगकी अखण्ड अनुभूति नहीं होती, तब तक हमें बाह्य सत्संगका सहारा अवश्य ही लेना चाहिए । कीर्तन या प्रवचनके लिए मंदिर जाना, तीर्थक्षेत्र जाना, सन्त लिखित आध्यात्मिक ग्रन्थोंका वाचन करना, अन्य साधकोंका सानिध्य, सन्त या गुरुके दर्शन हेतु जाना, उनके सत्संग सुनना या उनके सान्निध्यमें रहनेसे क्रमशः अधिकाधिक उच्च स्तरका सत्संग प्राप्त होता है । – तनुजा ठाकुर
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