निश्चयात्मक बुद्धि एवं साधनामें उसका महत्त्व


साधनामें निश्चयात्मक बुद्धि एवं लगनका महत्त्व  :

सांसारिक जीवन हो या आध्यात्मिक जीवन यदि हमें अपने ध्येयको प्राप्त करना हो तो निश्चयात्मक एवं लगन इन दोनों गुणोंका होना परम आवश्यक है । एक बार यदि लक्ष्यका निर्धारण हो गया हो और उचित मार्गदर्शन भी मिल रहा हो तो उस ओर बढने हेतु योग्य कृतिका होना अति आवश्यक है और उस कृतिमें निरन्तरता बनाए रखने हेतु निश्चयात्मक बुद्धिकी आवश्यकता होती है ।

बुद्धि दो प्रकारकी होती है – निश्चयात्मक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धि । गीतामें निश्चयात्मक बुद्धिको व्यवसायात्मिक बुद्धि और अनिश्चयात्मक बुद्धिको अव्यवसायात्मिक बुद्धि कहा गया है । निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, अनिश्चयात्मक बुद्धि अनेक दिशाओंकी ओर ले जानेवाली होती है, इस कारण साधकने निश्चयात्मक बुद्धिको प्राप्त करनी चाहिए । इसी निश्चयात्मक बुद्धिको स्थिर बुद्धि कहते हैं । श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायमें इस तथ्यको अर्जुनको समझाते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं –

व्यवसायात्मिका   बुद्धिरेकेह  कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥ – श्रीमद् भगवद्गीता

अर्थात् – हे अर्जुन ! इस कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिरविचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धि निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं । अनिश्चयात्मक बुद्धिको अस्थिर बुद्धि कहा जाता है । अस्थिर बुद्धिवालोंके लक्षणका वर्णन करते हुए उसी अध्यायके ही अगले श्लोकोंमें कहा गया है –

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

अर्थात् सांसारिक दृष्टिसे ज्ञानवान है व्यक्ति जो भोगोंमें तन्मय हो रहे हैं, जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्गसे बढकर दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं है, ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित अर्थात्‌ प्रदर्शनयुक्त वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिए नाना प्रकारकी बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है, उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषोंकी परमात्मामें निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती है । अभिप्राय यह है कि जो जन, भोग और ऐश्वर्यमें लीन रहते हैं उनकी बुद्धि अस्थिर रहती है; अतः साधकोंने साधनाके आरम्भिक कालमें गुरु, उन्नत एवं साधकके सत्संगमें रहना चाहिए; क्योंकि सांसारिक व्यक्ति स्वयं अस्थिर बुद्धिवाले होते हैं, ऐसेमें वे साधककी बुद्धिभेद कर सकते हैं और मैंने ऐसे अनेक गृहस्थोंको साधकोंका बुद्धिभेद करते हुए देखा भी है ।

जब हम यह निश्चय कर लेते हैं कि हमने लक्ष्यकी प्राप्ति करनी है तो उस पूर्ण होनेतक सारी बाधाओंको पार करने हेतु एवं अपनी कृतिमें सातत्य बनाए रखने हेतु दृढताकी अत्यन्त आवश्यकता होती है । साधारणतया सांसारिक जीवनमें भी हम जब कोई कृति करते हैं या सीखते हैं तो उसके अन्त तक मात्र दस प्रतिशत या उससे भी अल्प प्रमाणमें व्यक्ति उसमें सातत्य रख पाते हैं, जैसे जितने शिशु बाल विहारकी कक्षामें पढाई आरम्भ करते हैं उनमेंसे कितने प्रतिशत स्नातकोत्तरकी पढाई करते हैं, इसका यदि अनुपात लगाएं तो वह पांच प्रतिशतसे भी न्यून होगा । साधना करना तो और भी कठिन है इस मार्गमें प्रत्येक क्षण परीक्षा होती है और ऐसेमें निश्चयात्मक बुद्धिवाला जो दृढताके साथ साधना करता हो वही अपने लक्ष्यकी प्राप्ति तक टिक पाता है ।

दृढता बढाने हेतु जो हमसे साधनामें उन्नत हैं, उनके सम्पर्कमें रहना चाहिए । साधनामें दृढता हेतु आरम्भिक स्तरपर सत्संगमें जाना, सन्त लिखित ग्रन्थोंको पढना, छोटे-छोटे ध्येय निर्धारित कर उसे पूर्ण करना आवश्यक चरण है, जैसे इस सप्ताह सवेरे पन्द्रह मिनट पहले उठूंगा और पांच माला अधिक नामजप करूंगा । चाहे कुछ भी हो जाए, सत्संगमें नियमित जाऊंगा या प्रतिदिन सन्त लिखित ग्रंथके कुछ पृष्ठ पढूंगा, इस प्रकारके छोटे-छोटे ध्येयको निर्धारित कर उसे साध्य करनेपर साधकको आनन्द मिलता है और वह उत्तरोत्तर ध्येयका निर्धारण कर उसे पूर्ण करता है । जब तक मन है, तब तक संकल्प और विकल्पकी आशंका बनी रहती है । मात्र अपने ध्येयके प्रति एकनिष्ठा ही हमारे मनमें आनेवाले विकल्पोंको मात देनेमें सहायता करती है । साधनामें दस वर्ष तक निरन्तरतासे व्यष्टि और समष्टि स्तरोंपर प्रयत्न करनेवाले साधक, नगण्य ही होते हैं । और जो टिक जाते हैं उनपर ईश्वरीय कृपा अवश्य हो जाती है; अतः ध्येयका निर्धारण कर एकनिष्ठ होकर पूर्ण दृढताके साथ प्रयत्न करते जाना चाहिए और जो ऐसा कर पता है वही खरे अर्थोंमें क्षात्रवीर होता है ।

हमारे श्रीगुरुने ईश्वर प्राप्ति हेतु तीन घटक बताए हैं –

१. आध्यात्मिक स्तर

२. अडचनें

३. तडप

हमारे श्रीगुरुके अनुसार ऊपरके तीनों घटकोंमें आध्यात्मिक स्तर अर्थात् पूर्व जन्म और इस जन्ममें कुल अर्जित की हुई साधना, एवं अडचनोंका महत्त्व मात्र १० -१० प्रतिशत है और हमारी तडपका महत्त्व ८०% अर्थात् यदि निश्यात्मक बुद्धिके कारण एक ऐसा साधक जिसका आध्यात्मिक स्तर ५०% हो; परन्तु पुरुषार्थके रूपमें क्रियमाण कर्म उतने प्रमाणमें न होता हो तो ४०% स्तरवाला दृढ इच्छाशक्तिसे युक्त साधक कुछ ही वर्षोंमें ५०% आध्यात्मिक स्तरवाले साधकको साधनामें पछाड सकता है और प्रत्यक्षमें मैंने ऐसे कई उदाहरण घटित होते हुए भी देखे हैं । सत्य तो यह है कि जो साधक ईश्वरको साक्षी मानकर अपने सारे कर्म उत्कंठाके साथ करते हुए साधना पथपर अग्रसर होता है, ईश्वर भी अपने कार्य हेतु ऐसे साधकको चुनते हैं, चाहे उसका आध्यात्मिक स्तर न्यून ही क्यों न हो !

तो प्रश्न यह उठता है कि तडप कैसे बढे ? इस हेतु कुछ प्रयत्न किए जा सकते हैं, वे इस प्रकार है –

१. अपने अन्तर्मनमें साधनाके संस्कार एवं महत्त्वको अंकित करें, इस हेतु सन्तके जीवनीसे प्रेरणा लें । सन्तोंने साधनासे अपना जीवन सार्थक किया; अतः हमें भी साधना करना है, यह ध्येय निर्धारित करना चाहिए ।

२. मनुष्य जीवनका मूल उद्देश्य ईश्वरप्राप्ति करना है एवं यह साधनाद्वारा ही साध्य हो सकता है, यह अपने अन्तर्मनको बार-बार बताएं !

३. प्रतिदिन थोडा समय सांसारिक चिन्ताको छोड चिन्तनको दें; क्योंकि विषय वासनाओंकी चिन्ता करनेवाले व्यक्तिको उनमें आसक्ति निर्माण हो जाती है और उसका क्या परिणाम होता है ? इस विषयमें भगवान् श्रीकृष्णने भगवदगीताके दूसरे अध्यायमें कहा है

ध्यायतो    विषयान्पुंसः  संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ – श्रीमद् भगवद्गीता २:६२
,६३

अर्थात् – हे अर्जुन ! विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी वासना उत्पन्न होती है और वासनामें विघ्न पडनेसे क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोधसे अविवेक अर्थात् भ्रान्ति निर्माण होती हैँ, भ्रान्तिसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है, स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे निश्चयात्मक बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है अर्थात् उसका पूर्णतः पतन हो जाता है; अतः अपने विवेकको जागृत रखने हेतु चिन्तन अवश्य करें एवं अपने मन और बुद्धिको ईश्वरीय अनुसन्धानमें लगाकर शुद्ध करें !

४. मृत्योपरान्त हमारे साथ सूक्ष्मतम वस्तु ही जा सकती है । साधना सूक्ष्मतम है और हमारी सूक्ष्म जीवात्माके साथ सरलतासे जाती है और यह मृत्युके उपरान्तकी यात्राको भी सुलभ करता है एवं संसारके सभी वस्तुएं यहीं रह जानेवाली हैं; अतः शाश्वतकी प्राप्ति करनेका निर्णय लें !

अधिकांश साधक साधना पथपर अडचनें आनेपर उसके आगे थोडा संघर्ष करनेके पश्चात् घुटने टेक देते हैं, यह उनके अन्दर क्षात्रवृत्ति एवं निश्चयात्मक बुद्धिके अभावको दर्शाता है । साधनामें आनेवाली प्रत्येक अडचन या अवरोधका कोई न कोई निराकरण अवश्य होता है; अतः उस दिशामें प्रयास करते रहना चाहिए और धैर्य नहीं खोना चाहिए ।

सन्त कबीरने कहा है

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ ।
मैं बौरी  डूबन  डरी
, रही  किनारे  बैठ ।।

अर्थात् जो अपने ध्येय प्राप्तिमें आनेवाली अडचन आगे हतबल हो जाते हैं उन्हें कभी यश नहीं मिलता जैसे जिसे मोती चाहिए वह सागरके गहरे पानीमें गोता लगा देता है और जो किनारा बैठ यह सोचता है कि कहीं पानीमें उतरा और डूब गया तो क्या होगा ? ऐसे व्यक्तिके हाथ कभी भी मोती नहीं लगता ।

५. जैसे गुड खानेसे मुंह मीठा होता है, वैसे ही साधना करनेसे व्यावहारिक और आध्यात्मिक अडचनोंकी तीव्रता न्यून हो जाती है और मन आनन्दित रहने लगता है ।

६. जिसने योग्य प्रकारसे साधना की है, करुणानिधान परमेश्वरने उसकी इच्छा अवश्य पूर्ण की है; अतः दृढताके साथ साधना करें ! – तनुजा ठाकुर



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