समाधान : जब कोई लिंगदेह माताके गर्भमें शरीर धारण करता है तो सर्वप्रथम वह मनुष्य कहलाता है, तत्पश्चात ही उसका लिंग निर्धारण होता है एवं पृथ्वीपर जन्मके पश्चात ही उसके विविध सम्बन्ध बनते हैं; अतः जीवात्माकी प्रथम अभिज्ञान ( पहचान) है, उसका मनुष्य होना और मनुष्य जीवनका मूल उद्देश्य है, ईश्वरप्राप्ति करना । जिस व्यक्तिका यह लक्ष्य है, उसके लिए पुत्र इत्यादिकी प्राप्तिका कोई महत्त्व नहीं होता, अन्यथा शुकदेव, आद्यगुरु शंकराचार्य, समर्थ रामदास स्वामी इत्यादि अनेक ब्रह्मचारी संन्यास लेकर ईश्वरप्राप्तिकी ओर क्यों उन्मुख होते ?
पुत्रका एक आध्यात्मिक कार्य है, अपने पिताकी मृत्योपरान्तकी यात्राको पितृकर्म करके सुलभ करना; किन्तु यदि कोई व्यक्ति साधनाकर, सदेह जीवनमुक्त हो जाता है तो उसे पुत्रकी क्या आवश्यकता है ? पुत्रका एक लौकिक कार्य है, धर्मपालन करते हुए, अपने पिताके गुणसूत्रोंकी रक्षा करते हुए, अपनी कुल परम्परा एवं वर्णधर्मकी रक्षा करना; किन्तु यदि किसीके प्रारब्धमें कुपुत्र हो या अल्पायुका पुत्र हो तो ऐसे पुत्रसे क्या लाभ ?; अतः पुत्र प्राप्ति मात्र लौकिक दृष्टिसे या सृष्टिके सृजनकी प्रक्रिया चलती रहे, इस हेतु आवश्यक है, एक मुमुक्षुके लिए पुत्रप्राप्तिकी अपेक्षा साधनाकर ईश्वरप्राप्ति हेतु योग्य प्रयत्न करना अधिक महत्त्व रखता है । – तनुजा ठाकुर
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