महाराणा प्रतापकी शौर्य गाथा


maharan pratap

विक्रम संवत अनुसार माघ शुक्ल पक्ष एकादशीको अर्थात ७ फरवरीको भारतके महावीर महाराणा प्रतापजीका स्मृतिदिन है, उनके नामसे भारतीय इतिहास आज भी गूंजायमान है । वह भारत भूमिके ऐसे वीर सुपुत्र थे जिन्होंने मुगलोंको छठीका दूध स्मरण करा दिया था । इनकी वीरताकी कथासे भारतकी भूमि अत्यन्त गौरान्वित है । वह मेवाडकी प्रजाके प्राण थे ।

१. जन्म एवं बाल्यकाल

खिस्ताब्द ९ मई, १५४० को राजस्थानके कुम्भलगढमें सिसोदिया राजवंशके महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जीवत कंवरके घर महाराणा प्रतापका जन्म हुआ था । यह दिवस विक्रमी संवत् अनुसार प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ, शुक्ल पक्ष तृतीयको आता है । बाल्यकालमें उनका नाम ‘कीका’ था । स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी, प्रताप बचपनसे ही वीर तथा बहादुर थे । मातासे मेवाडी परम्परा और शौर्यकी गाथा सुनकर प्रतापका मन बचपनसे ही मातृभूमिकी भक्तिमें लग गया और उन्होंने अपना जीवन राष्ट्र, कुल और धर्मकी रक्षाके लिए अर्पित कर दिया ।

२. राज्याभिषेक एवं मुगलोंके विरुद्ध संघर्षका शुभारम्भ

खिस्ताब्द १५६८ में अकबरद्वारा चितौडपर आक्रमण कर उसे अपने अधीनस्थ करनेकी पीडा उन्हें सदैव सताती रहती थी एवं अपनी भूमिको पुनः प्राप्त करने हेतु महाराणा प्रताप निरन्तर संघर्षरत रहे । अपने पिता महाराणा उदय सिंहकी मृत्युके पश्चात् महाराणा प्रतापके संघर्ष और सफलताकी गाथाका आरम्भ हुआ । मुगलकालमें जब राजपूतानाके अन्य शासकोंने मुगलोंसे सन्धि कर ली थी तब मेवाडकी भूमिपर स्वाभिमान और धर्माभिमानके जिस सूर्यका उदय हुआ उसका नाम था महाराणा प्रताप सिंह ।

३. मुगलोंके पक्षमें जानेवाले राजपूतोंसे करते थे घृणा

अकबरसे मित्रता करनेवाला मानसिंह शोलापुरकी विजयके पश्चात् भारत लौट रहा था, तो मार्गमें उसने राणा प्रतापसे भेंट करनेकी इच्छा व्यक्तकी जो उस समय कमलमीरमें थे । राणाने उनकी इच्छाका मान रखा और उनका स्वागत करनेके लिए उदयसागरतक गए और झीलके निकट स्थित टीलेपर मानसिंहके लिए भोजका आयोजन किया; किन्तु भोजनके समय राणा प्रताप स्वयं अनुपस्थित रहे एवं राजकुमार अमरसिंहको अतिथिकी सेवाके लिए भेजा गया । जब मानसिंहने राणा प्रतापकी अनुपस्थितिका कारण पूछा तो अमर सिंहने कहा कि राणाजीके सिरमें तीव्र वेदना हो रही है, इसी कारण वह आपके साथ भोजन नहीं कर पाएंगे । इसपर मानसिंहने उत्तर दियाकी राणा प्रतापकी अनुपस्थितिका यथार्थ कारण मुझे ज्ञात हो गया है, यदि वह मुझे भोजन नहीं परोसेंगे तो मैं भी यह भोजन नहीं करूंगा, इसपर महाराणा प्रतापने मानसिंहको सन्देश भेजा कि जिस राजपूतने अपनी बहन एक तुर्कको सौंप दी हो उसके साथ भोजन कौन करेगा ?

यह सुनते ही मानसिंह उस भोजसे तुरन्त बिना भोजन किए ही प्रस्थान कर गया । तत्पश्चात् उस स्थानको पवित्र किया गया, जिन बर्तनोंमें उन्हें भोजन परोसा गया था वह सब भी अपवित्र मान कर त्याग दिए गए और जिन राजपूतोंने यह दृश्य देखा, उन्होंने अपने आपको मानसिंहके दर्शनसे अपवित्र मानकर पुनः वस्त्रादि परिवर्तित कर स्नान किया । इस घटनाका सम्पूर्ण वृत्तान्त, अकबरको दिया गया । उसने मानसिंहके अपमानको अपना अपमान समझा और इस अपमानका प्रतिशोध लेनेके लिए युद्धकी सिद्धता आरम्भ कर दी और सर्वप्रथम महाराणा प्रतापकी सेना और मुगलोंका आमना–सामना हल्दीघाटीमें हुआ ।

४. हल्दीघाटी युद्ध

इसी घटनाके परिणामस्वरूप १८ जून १५७६ को अकबरकी सेना और महाराणा प्रतापकी सेना गोगुन्दाके पास हल्दी घाटीमें मिली, यह स्थान आज राजस्थानमें है । इस युद्धमें अकबरकी सेनामें ८५००० सैनिक थे और महाराणाके सेनामें केवल २०००० किन्तु इसके पश्चात् भी राणा प्रताप और उनकी सेनाने मुगलोंका वीरतापूर्वक सामना किया और अपनी अन्तिम श्वासतक मुगलोंकी सेनाको अधिकसे अधिक क्षति पहुंचाई । महाराणा प्रतापका भाला ८१ किलोका था और उनके छातीका कवच ७२ किलोका था । उनके भाले, कवच, ढाल और साथमें दो खड्गोंका (तलवारोंका) कुल भार २०८ किलो था । (यह सब शस्त्र इत्यादि, आज भी उदयपुर राज घरानेके संग्रहालयमें सुरक्षित हैं) । इस युद्धमें अकबरका पुत्र सलीम मुगल सेनाका नेतृत्व कर रहा था और सेनापति मानसिंह थे । मुगल सेनामें अनेक तुर्की सैनिक भी थे और सम्पूर्ण सेना घोडे, हाथी एवं अनेक तोपोंसे सुसज्ज्ति थी ।

दोनों सेनाओंमें घनघोर युद्ध हुआ और युद्धके मध्य एक समय ऐसा आया जब युद्ध अत्यन्त भीषण हो गया था । इसी मध्य राणा प्रतापके राजमुकुटका अभिज्ञान (पहचान) कर अनेक मुगल सैनिक उनपर आक्रमण करने लगे और यह देख महाराणा प्रतापकी सेनाके एक वीर, झाला मन्नाजीने एक युक्ति सोची और स्वामीभक्तिका एक अभूतपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए, अत्यन्त स्फूर्तिसे आगे बढकर महाराणा प्रतापके सिरसे मुकुट उतार कर अपने सिरपर रख लिया और द्रुत गतिके साथ कुछ दूरीपर जाकर घमासान युद्ध करने लगे ।

मुगल सैनिक झाला सरदारको ही महाराणा समझकर उनपर टूट पडे और महाराणा प्रतापको युद्ध भूमिसे दूर निकल जानेका अवसर मिल गया । उनका सम्पूर्ण शरीर अनगिनत घावोंसे रक्तरंजित हो चुका था । युद्धभूमिसे जाते-जाते महाराणाने झाला सरदारको अपने प्राण त्यागते देखा । राजपूतोंने वीरताके साथ मुगलोंका सामना किया; परन्तु तोपोंसे सुसज्जित शत्रुकी विशाल सेनाके सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा । युद्धभूमिपर उपस्थित बीस सहस्र राजपूत सैनिकोंमेंसे केवल आठ सहस्र ही किसी प्रकार अपने प्राणकी रक्षा कर जीवित बच पाए । मेवाडकी प्रजा एवं हिन्दू संस्कृतिके उत्थानके लिए महाराणा प्रतापका जीवित रहना अनिवार्य था, इसी कारण उन्होंने उस समय युद्ध स्थलसे जानेका निर्णय लिया; किन्तु इसके पश्चात् भी मुगलोंने राणा प्रतापको नहीं छोडा ।

युद्ध भूमिसे उसी घायल अवस्थामें वह अकेले ही बिना किसी सहायकके अपने पराक्रमी घोडे चेतकपर सवार होकर पहाडकी ओर चल पडे; किन्तु दो मुगल सैनिक भी उनका पीछा करने लगे । मार्गमें पहाडी नाला था जो अत्यन्त लम्बा था, घायल चेतक अपने स्वामीके प्राणोंकी रक्षा हेतु उसे किसी प्रकार पार कर गया; किन्तु मुगल सैनिक उसे पार नहीं कर पाए । तभी उनका भाई शक्तिसिंह जो युद्धमें मुगल पक्षकी ओरसे लडे थे; किन्तु जब उसने चेतकके पीछे दो मुगल सैनिकोंको जाते देखा, तो उसका हृदय परिवर्तन हो गया और उन्होंने उन दोनों मुगल सैनिकोंको यमलोक पहुंचा दिया ।

इसके पश्चात जीवनमें प्रथम बार दोनों भाई प्रेमके साथ गले मिले, किन्तु इस मध्य अदम्य साहस और स्वामी भक्तिके नूतन मानदण्ड स्थापित करते हुए चेतकने वीरगति पाई ।

इस युद्धके पश्चात महाराणा प्रताप चित्तौड छोडकर वनवासी हो गए थे । महारानी, राजकुमार और राजकुमारी घासकी रोटियों और निर्झरके जलपर ही किसी प्रकार अरावलीकी पहाडियोंमें जीवन व्यतीत करने लगे ।

सभी ओरसे कोई सहायता प्राप्त न होनेके कारण महाराणा प्रतापका जीवन बहुत ही कठिन हो गया । वे जंगलों, गुफाओं और झोपडीमें रहते थे, भील समुदायकी सहायतासे जंगलमें जीवन जीनेकी कला सीखी और कन्द मूल खाकर अपने परिवारका भरण पोषण किया । शत्रुओंसे निरन्तर संघर्ष और साधनहीनता जैसी विषम परिस्थितिके पश्चात् भी महाराणा प्रतापकेने पराजय स्वीकार नहीं की । राणा प्रतापने समय और परिस्थितियोंके अनुसार अपनी युद्ध नीतिको पूर्णरूपेण परिवर्तित किया तथा शत्रु सेनाको छापामार युद्धकी नीति अपनाकर मुगल सेनाको भारी क्षति पहुंचाई ।

५. मुगलोंके विरुद्ध पुनः संगठित होकर अपने सैन्यशक्तिसे दी मात

इसी मध्य मेवाडके एक वृद्ध मन्त्री भामाशाहने अपने जीवनमें अर्जितकी हुई अपार सम्पत्ति महाराणाको अर्पण कर उनकी सेवामें उपस्थित हुआ और उसने महाराणा प्रतापसे मेवाडके उद्धारकी याचनाकी । यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षोंतक २५,००० सैनिकोंका व्यय पूरा किया जा सकता था ।

इसके पश्चात् महाराणा प्रतापने पुनः एक शक्तिशाली सेनाका गठन किया और कुछ ही दिवसमें चित्तौड, अजमेर और माण्डलगढके अतिरिक्त सम्पूर्ण मेवाडपर पुनः अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया ।

कोई चोट लग जानेसे वे अस्वस्थ हो गए और महाराणा प्रतापका देहावसान, खिस्ताब्द १५९७ के जनवरीके माहमें ५७ वर्षकी आयुमें चावंडमें हुआ; किन्तु प्राण त्यागनेसे पूर्व महाराणाने राजकुमार अमर सिंहसे शपथ ली कि वह कभी मुगलोंसे सन्धि नहीं करेगा और चित्तौडपर पुनः राजपूतोंका आधिपत्य स्थापित करेगा ।

ऐसे पराक्रमी, तेजस्वी एवं हिन्दू संस्कृतिके रक्षक महाराणा प्रतापको कोटि कोटि नमन । हम हिन्दुओंको ऐसे शूरवीरके जीवनसे प्रेरणा लेकर राष्ट्र रक्षण एवं हिन्दू संस्कृतिके उत्थानके लिए आगे आना चाहिए और मातृभूमिके प्रति अपने दायित्वका पालन करनेके लिए शीघ्र अति शीघ्र हिन्दू राष्ट्रकी स्थापनाके लिए पूर्णरूपेण प्रयासरत होना चहिए ।



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