सत्त्व, रज और तमसे अनभिज्ञ बुद्धिजीवी लोगोंके दोषपूर्ण दृष्टिकोण


कुछ दिवस पूर्व, पटनासे आते समय मैं रेलयानमें एक उच्च पदस्थ सेवानिवृत्त व्यक्तिसे मिली । उन्होंने भोजनमें मांसाहारका आदेश दिया । भोजनमें होनेवाले मिलावटके विषयमें हम कुछ वार्तालाप कर रहे थे, बात ही बातमें उन्होंने कहा, “मैं इसलिए बाहर जब भी मांसाहर करता हूं तो अंडा और मुर्गा(चिकेन) लेता हूं; क्योंकि मांसमें वह किसका मांस है, यह समझना थोडा कठिन होता है । मैंने उनसे कहा, “आप बंगाली ब्राह्मण है और मुझे ज्ञात है कि आपलोग मांसाहारी होते हैं; किन्तु क्या आजसे पचास वर्ष पूर्व आपके घरमें अंडा या मुर्गाका सेवन किया जाता था ?” उन्होंने कहा, “नहीं, हमारी दादी तो उसकी ओर देखती भी नहीं थी ?” मैंने उनसे पूछा, “आपकी आयु साठ वर्षसे अधिक है, क्या आपने कभी इसका कारण जाननेका प्रयास किया ?” उन्होंने कहा, “नहीं “। मैंने कहा, “हमारी भारतीय संस्कृतिमें मांसाहारी व्यंजनोंमें अधिक राजसिक और अधिक तामसिक व्यंजनोंके सूक्ष्म विवेचन कर, किसे कौन सा आहार लेना चाहिए यह बताया गया है; जैसे दालमें मूंगकी दल सात्त्विक, अरहरके दालको राजसिक एवं मसूरकी दालको त्म्सिक माना गया है वैसे ही मछली, और बकरे या भेडके मांससे अधिक तामसिक अंडा या मुर्गा है; इसलिए भारतमें कुछ ब्राहमण मांसाहर करते थे, वे मूलतः तंत्र उपासनाके कारण ही बलिमें अर्पित मांसको खाते थे एवं कालान्तरमें अपनी जिह्वाकी वासना तृप्ति हेतु मांसाहारी बने; किन्तु वे भूलसे भी अंडा या मुर्गाका सेवन नहीं करते थे ।” वे सुनकर आश्चर्यचकित हो गए, वे बोले, “मैं भी कितना मूर्ख हूं, जो मात्र सब कुछ बाहरसे समीक्षा करता रहा, इसके सूक्ष्म पक्षको जाननेका कभी प्रयास नहीं किया ।” मैंने कहा, “यह सब हिन्दुओंमें धर्मशिक्षणके अभावके कारण ही हो रहा है ।”  (३.२.२०१४)



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