क्यों हुई भीमा-कोरेगांव हिंसा, इसके पीछे कौन से लोग हैं


DNA में आज सबसे पहले हम 200 वर्ष पहले हुई एक ऐसी लड़ाई का विश्लेषण करेंगे, जिसकी वजह से महाराष्ट्र के कई शहरों में तनाव बना हुआ है. जो लड़ाई 200 साल पहले हुई थी, उसकी वजह से आज तनाव कैसे हो गया? ये वो सवाल है जिसका जवाब आपको कहीं नहीं मिला होगा. आपने सुना होगा कि आज सुबह से मुंबई समेत महाराष्ट्र के कई शहरों में हिंसा हो रही है. दलित समुदाय के लोग विरोध कर रहे हैं. आपने ये भी सुना होगा कि कल (सोमवार, 1 जनवरी) पुणे में हुई हिंसा की वजह से ये प्रदर्शन हो रहे हैं. लेकिन ये हिंसा क्यों हुई? इसके पीछे कौन से लोग हैं और अब इस हिंसा के बाद कैसे राजनीति हो रही है, ये आज हम आपको बताएंगे. इस मामले को समझने के लिए आपको 200 वर्ष पहले हुए एक युद्ध का इतिहास पता होना चाहिए.

1 जनवरी 1818 को पुणे के पास कोरेगांव में एक लड़ाई हुई थी. ये लड़ाई ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना और पेशवाओं की फौज के बीच हुई थी. इस लड़ाई में अंग्रेज़ों की तरफ से महार जाति के लोगों ने लड़ाई की थी और इन्हीं लोगों की वजह से अंग्रेज़ों की सेना ने पेशवाओं को हरा दिया था. महार जाति के लोग दलित होते हैं.. ये लोग इस युद्ध को अपनी जीत और स्वाभिमान के तौर पर देखते हैं और इस जीत का जश्न हर साल मनाते हैं.

आज हमने इस ऐतिहासिक घटना पर बहुत रिसर्च किया है. और इस रिसर्च में हमें अलग अलग तथ्य मिले हैं. Gazetteer of Bombay Presidency नामक किताब के Volume -18, में कोरेगांव की इस लड़ाई का ज़िक्र है. इसमें लिखा गया है कि अंग्रेज़ों की सेना की तरफ से 834 सैनिक शामिल थे, जिसमें 500 महार समुदाय के लोग थे. और 300 घुड़सवार थे. इसी किताब के मुताबिक पेशवाओं की सेना की संख्या 30 हज़ार बताई गई है. हालांकि बहुत से दूसरे दस्तावेज़ों में पेशवाओं की फौज की ये संख्या 20 से 25 हज़ार भी बताई गई है. यानी इन 500 लोगों ने 25 से 30 हज़ार लोगों को हरा दिया था. 1 जनवरी को भी पुणे के पास कोरेगांव नाम की इस जगह पर जीत का जश्न मनाने के लिए करीब 3 लाख दलित लोग मौजूद थे.

लेकिन सवर्ण जातियों के कुछ लोग इसका विरोध कर रहे थे. और आरोपों के मुताबिक दोनों पक्षों की तरफ से पथराव हुआ. और इस झड़प में एक व्यक्ति की मौत हो गई, जबकि कई लोग घायल हो गए. इस घटना के विरोध में मंगलवार (2 जनवरी) को महाराष्ट्र के कई शहरों में दलित संगठनों ने बंद का आह्वान किया था. महाराष्ट्र के नागपुर, जालना, बीड, औरंगाबाद, उस्मानाबाद, मनमाड, ठाणे और मुंबई के कई इलाकों में जगह-जगह हंगामा हुआ और हिंसा हुई.

मुंबई में मंगलवार (2 जनवरी) को सैकड़ों लोगों ने सुबह से ही प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था. Eastern Suburb के बहुत से इलाकों में लोग सड़कों पर थे. प्रदर्शनकारी ट्रेनों का रास्ता रोक रहे थे. जिसकी वजह से हार्बर लाइन पर ट्रेनों की आवाजाही प्रभावित हो रही थी. कुछ इलाकों से.. बसों पर पथराव करने की ख़बरें भी आईं, जिसके बाद मुंबई के Eastern Suburb में स्कूल बंद करने पड़े.

प्रदर्शन की वजह से सड़कें जाम हो गईं और लोगों का आज अपने ऑफिस पहुंचने में बहुत परेशानी हुई. हालांकि इन इलाकों में पुलिस तैनात थी, लेकिन प्रदर्शनकारी इसके बावजूद दुकानों को बंद करवा रहे थे. दलित संगठनों ने कल महाराष्ट्र बंद का ऐलान किया हुआ है. महाराष्ट्र में हालात अभी भी तनावपूर्ण हैं, लेकिन स्थिति नियंत्रण में है. सरकार ने पूरी घटना की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं और लोगों से अफवाहों पर ध्यान न देने की अपील की है.

इस पूरे घटनाक्रम के बीच बड़ा मुद्दा ये है कि आज भी हमारा समाज जातियों के दुष्चक्र में उलझा हुआ है. आज से 200 वर्ष पहले महाराष्ट्र के महार समुदाय ने अंग्रेज़ों का साथ इसलिए दिया था, क्योंकि वो अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों से तंग आ चुके थे. उस दौर में सवर्ण जातियों के लोग महार समुदाय के लोगों पर अत्याचार करते थे. लेकिन अफसोस इस बात का है कि 200 वर्षों के बाद भी तस्वीर नहीं बदली है. आज हम 21वीं सदी के 18 वें वर्ष में हैं.. लेकिन देश को जातिवाद के ज़हर से मुक्ति नहीं मिली है. एक समाज के तौर पर हमारे देश की सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि हम इस व्यवस्था को तोड़ नहीं पा रहे हैं.

अब आपको उस युद्ध के बारे में बताते हैं, जिसकी जीत को दलित समुदाय शौर्य दिवस के तौर पर मनाता है. आपमें से ज्यादातर लोगों ने Battle of Koregaon के बारे में नहीं सुना होगा. ये युद्ध इस पूरे विवाद की कुंजी है.. इसलिए.. आपको इसके बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए

इस पूरी घटना पर ज़बरदस्त राजनीति हो रही है. हम आपको बताते हैं कि महाराष्ट्र में कौन सा राजनीतिक गैंग इस वक़्त एक्टिव है. ये वीडियो 31 दिसंबर का है. उस दिन पुणे के पास भीमा-कोरेगांव में एक सेमिनार का आयोजन किया गया था. जिसमें दलितों के 50 संगठन शामिल हुए थे. और इसमें कुछ मुस्लिम संगठन भी शामिल थे. लेकिन जब आप मंच पर बैठे हुए लोगों को देखेंगे तो आपको हैरानी होगी. क्योंकि इस मंच पर गुजरात से विधायक और कांग्रेस पार्टी के समर्थक जिग्नेश मेवाणी मौजूद थे.

इसके अलावा इस मंच पर उमर खालिद भी मौजूद था. उमर खालिद JNU का वही छात्र नेता है, जिसने देशविरोधी नारेबाज़ी की थी. उस दौरान भारत तेरे टुकड़े होंगे.. जैसे नारे भी लगाए गये थे.,. जिन्हें सुनकर पूरा देश आक्रोशित हो गया था. यानी अफज़ल गुरु की बरसी मनाकर.. भारत विरोधी नारे लगाने वाले लोग भी…. इस सेमिनार में शामिल थे. ये सब वो लोग हैं, जिनका समर्थन कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी करते हैं.

आपको याद होगा कि 2016 में उमर खालिद ने जब JNU में भारत विरोधी नारे लगाए थे.. तब राहुल गांधी ने उनका समर्थन किया था. दूसरी तरफ जिग्नेश मेवाणी भी राहुल गांधी के समर्थन से विधायक बने हैं. और खुद जिग्नेश मेवाणी.. 31 दिसंबर को उमर ख़ालिद के साथ मंच पर मौजूद थे. अब आप समझ गए होंगे कि महाराष्ट्र में कौन सा राजनीतिक गैंग एक्टिव है. आप ये भी कह सकते हैं कि अफज़ल प्रेमी गैंग ने महाराष्ट्र में एक नया अवतार लिया है.

हम ये नहीं कह रहे हैं कि इनके एक साथ आने के बाद वहां हिंसा भड़की. लेकिन इस बात की जांच ज़रूर होनी चाहिए कि इस मामले में इन लोगों की भूमिका क्या थी? क्योंकि ये सेमिनार 31 दिसंबर 2017 को हुआ था और हिंसा 1 जनवरी 2018 को भड़की. ये एक इत्तेफाक़ भी हो सकता है. लेकिन इसकी जांच करना ज़रूरी है. (इसके अलावा इस मंच पर आत्महत्या करने वाले दलित छात्र रोहित वेमुला की मां भी मौजूद थीं) राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि Untouchability यानी छुआ-छूत को मानने वाली सोच… आत्मा को नष्ट करने वाला पाप है और जाति व्यवस्था एक बहुत बड़ी सामाजिक बुराई है. और गांधी जी की ये बात आज भी उतनी ही सच है.

देश की राजनीति में दलितों को हमेशा एक वोटबैंक समझा गया है. यही वजह है कि आज भी इस मुद्दे पर राजनीति हो रही है. और शर्म की बात तो ये है कि हर राजनीतिक पार्टी जाति के समीकरणों के आधार पर ही अपने टिकट बांटती है. जातियों के आधार पर वोटिंग होती है. और इसी आधार पर मंत्रिमंडल के मंत्री भी तय होते हैं. आपने अक्सर ये देखा होगा कि जिस राज्य में चुनाव होने वाले होते हैं.. उसी राज्य के जातिगत समीकरण देखते हुए.. मंत्री बना दिए जाते हैं. सवाल ये है कि इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए कितने साल और लगेंगे? ये व्यवस्था पिछले 70 वर्षों से खत्म नहीं हुई है, और अगले 70 वर्षों में भी जातियों की ये व्यवस्था खत्म होती नहीं दिख रही है. इस व्यवस्था का बनाए रखने में मीडिया का भी बड़ा हाथ है.

मीडिया का एक वर्ग आज भी अपनी ख़बरों की प्राथमिकता पीड़ित की जाति देखकर ही तय करता है. पीड़ित अगर मुस्लिम या दलित हो तो मीडिया के कई चैनल और अखबार उस ख़बर को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं. और Headline बना देते हैं. खबरों की रिपोर्टिंग के दौरान इस बात का हमेशा ये ध्यान रखा जाता है कि कहीं पीड़ित व्यक्ति दलित या मुस्लिम तो नहीं है ? अगर ऐसा होता है तो फिर मीडिया की नज़र में ख़बरों का वज़न बढ़ जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2017 में एक फैसला सुनाते हुए कहा था कि धर्म और जाति के नाम पर चुनावों में वोट नहीं मांगे जा सकते. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बावजूद हमारे देश में पूरे ज़ोर शोर से धर्म और जाति पर आधारित राजनीति हो रही है.



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