संस्कृत क्यों सीखें ? (भाग – ५)


भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती ।
तस्यां हि काव्यम् मधुरं तस्मादपि सुभाषितम् ।।
अर्थ : सर्व भाषाओंमें संस्कृतका सर्वाधिक महत्त्व है, संस्कृत सबसे मधुर और देवभाषा है । उसमें भी संस्कृतके काव्य अत्यधिक मधुर हैं, उसमें भी सुभाषित तो और भी मधुर होते हैं !

हम सभी भारतीय हिन्दूकी मूल भाषा संस्कृत ही है । यदि मूल नष्ट हो जाए तो क्या होगा, आप समझ सकते हैं; इसलिए एक सोची-समझी रणनीतिके अन्तर्गत हिन्दू धर्मद्रोही राज्यकर्ताओंने इस भाषाको मृतप्राय बनानेके हर सम्भव प्रत्यन किए हैं । संस्कृत सीखनेसे हमारा व्याकरण कितना बृहद है, यह ध्यानमें आता है । किसी भी भाषाकी व्यापकता और उसकी समृद्धि उसके पर्यायवाची शब्दोंकी अधिकतासे होती है या ऐसा कह सकते हैं, जो भाषा जितनी ही सम्पन्न होगी, उसमें पर्यायवाची शब्दोंकी संख्या उतनी ही अधिक होगी । संस्कृतमें इनकी अधिकता है । इस भाषामें एक शब्दके अनेक पर्यायवाची शब्द हैं, जैसे हमारे कुछ देवी-देवताके नामके तो एक-एक सहस्र पर्यायवाची शब्द हैं ! ऐसी प्रगल्भ भाषासे हमें दूर रखनेवालोंको क्या दण्ड देना चाहिए ?, आप स्वयं सोचें ! क्या उनका यह पाप क्षम्य है ?
यह भाषा देवोंकी भाषा होनेसे, इसे बोलते समय आनन्दकी अनुभूति होती है, जिह्वा और वाणी शुद्ध होती हैं एवं हमारे भीतर सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है; इसलिए पूर्वकालमें जब बच्चे बोलना सीखते थे तो घरके वयोवृद्ध उन्हें संस्कृतमें मन्त्रोच्चार करना प्रथम सिखाते थे । संस्कृत पढने, बोलने या लिखने या मात्र देखनेसे भी हमपर आध्यात्मिक उपचार होते हैं और मन एवं बुद्धिका आवरण नष्ट होकर अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट न्यून हो जाता है । इसकी हमने प्रत्यक्षमें अनुभूति ली है । मैं जब झारखण्डमें अपने पैतृक निवासमें थी तो मुझे भान हुआ कि वहां अधिकांश हिन्दुओंके घरोंमें मुसलमान भूतोंका वास है; मुझे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ; किन्तु कभी-कभी सत्य समय आनेपर ही उद्घाटित करना चाहिए; अतः मैंने किसीसे कुछ कहा नहीं । जब मैं वहां रहने लगी तो मेरी अस्वस्थताके कारण हमारी कुलदेवीकी पूजा करनेमें व्यवधान आने लगा । हमारे ग्राममें अधिकांश घरोंमें कुलदेवीकास स्थान है, जिसकी विधि-विधानसे पूजा होती है । अब इसे विधिका विधान कहें या कुछ और, जो पण्डितजी पूजा करने आते थे, वे वृद्ध हो चुके थे; अतः हमने एक अन्य पुरोहितको रखा, किन्तु वे पूजा नहीं, जैसे अपना नियम पूरा करते हों । दो लोटे जलमें ८x८ के पूजाघरको किसी प्रकार स्वच्छ कर, मुखमें पान भरकर दो, चार बार बाहर आकर थूकते हुए, पांच मिनिटमें पूजाकी पूर्व सिद्धताकर घण्टी बजाकर चले जाते थे । एक सप्ताहतक मैंने यह सब देखा । मेरा ऐसा सोचना है कि विप्रका सम्मान होना चाहिए; अतः मैं उनका आदर-सत्कार, दक्षिणा सबका श्रद्धासे व्यवस्था करती थी । एक दो बार मैंने उन्हें प्रेमसे उनकी चूकें बताई; किन्तु उनकी वृत्ति ऐसी थी, ‘हम दस घर जाते हैं और ऐसे ही पूजा करते हैं, आपको कराना हो तो कराएं ! ’ एक बार मैं अस्वस्थ हो गई थी और मैं आठ दिन पश्चात जब पूजा घर गई तो वहांकी अव्यवस्थता देख मन कुपित हो गया, मैंने पण्डितजीको सब दिखाया तो अपनी चूक स्वीकार करनेकी अपेक्षा, वे मुझपर भडक गए, मैंने त्वरित दक्षिणा देकर उनकी छुट्टी की । अब ऐसे ब्राह्मण क्या सम्मानके पात्र हो सकते हैं ? गांवमें और कोई पुरोहित नहीं था, मैंने सोचा पुरोहितकी पुत्री हूं, पुरोहित नहीं बन सकती; क्योंकि शास्त्र इसकी अनुमति नहीं देता और मैं इस तथ्यका सम्मान करती हूं, किन्तु कुछ बाल-साधक पुरोहित तो अवश्य ही निर्माण कर सकती हूं और मैंने संस्कृत वर्ग लेना आरम्भ किया; किन्तु मेरे आश्चर्यका ठिकाना न रहा । ग्रामीण बच्चोंको संस्कृत सिखाते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और सबमें मुसलमान भूत प्रकट होकर चिल्लाते हुए कहने लगे, हमें संस्कृत मत सिखाओ, हमारा देह जलता है और अल्लाह-अलाह कर उत्पात मचाने लगे ! मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि संस्कृत भाषामें इतनी शक्ति होगी ? मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि मेरा सूक्ष्म परीक्षण पूर्णतः सही था; क्योंकि मुझे पहलेसे भान हो रहा था कि यहांके हिन्दुओंके घरमें ‘जिन्नों’का बसेरा है और वे सारी अनिष्ट शक्तियां बाल साधकोंमें प्रकट होकर कहती, तुम्हें अंग्रेजी आती है, वह सिखाओ, उर्दू सिखाओ, परन्तु संस्कृत न सिखाओ, हमें इससे कष्ट होता है, मुझे बार-बार धमकी देतीं !; किन्तु मैंने संस्कृत सिखानेका क्रममें निरन्तरता रखी और सभी बच्चोंको साधना करने हेतु कहा और सारे मुसलमान भूत कुछ ही दिवसोंमें भाग गए ! उस गांवके लोग इस बातके साक्षी हैं, यह है संस्कृतका प्रताप ! आज अधिकांश हिन्दू, मुसलमानोंके हाथोंसे कटे मांसका या ईदमें जाकर उनके यहां भोजन ग्रहण करते हैं, यह सर्व संक्रमण वहींसे आते हैं, यह भी मुझे उन्हीं मुसलमान भूतोंने बताया !; इसलिए मुसलमान व्यक्ति जो गोभक्षक होते हैं, उनका स्पर्श भी वर्जित था । आजकल धर्मनिरपेक्षताके नामपर हम सबने अपना धर्मका सर्वनाश कर लिया है ।
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कैसे सीखें संस्कृत ?
विद्यालयीन पाठ्यक्रमोंमें बारहवीं तककी पुस्तकोंका प्रथम अभ्यास करें, तत्पश्चात ‘लघुसिद्धान्त कौमुदी’ जैसे ग्रन्थोंका अभ्यास आरम्भ करें ! किसी भी भाषाका प्राण उसका व्याकरण होता है और संस्कृतका व्याकरण एक दर्शन है, आप जितना सूक्ष्मतासे इसका अभ्यास करेंगे, यह उतना ही आनन्द प्रदान करेगा ! मात्र प्रतिदिन एक घण्टे इसके अभ्यास हेतु निकालनेकी आवश्यकता है । साथ ही ‘यूट्यूब’की भी सहायता ले सकते हैं; किन्तु सदैव संस्कृत सीखने हेतु प्रथम व्याकरणसे उसका अभ्यास आरम्भ करें !



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