२०१३ के महाकुम्भमें एक प्रसिद्ध संन्यासीसे मिली जिन्हें सब सन्त कहते थे; परन्तु वे एक उन्नत थे (उनका आध्यात्मिक स्तर ५० % था) । उन्नत वे होते हैं, जो सन्त अर्थात आत्मज्ञानी नहीं होते; परन्तु उनकी साधना प्रगल्भ होती है । मैंने उनके विषयमें पूछा तो उनके एक शिष्यने कहा, “वे अमुक-अमुकके (गुरुका नाम गुप्त रखना चाहती हूं) गुरुके शिष्य थे; परन्तु उनके गुरुके साथ उनका कोई मतभेद हो गया और उन्होंने उनके आश्रमको छोडकर अपना आश्रम बना लिया है ।” मेरा अनुभव कहता है कि गुरु और शिष्यमें कभी मतभेद हो ही नहीं सकता, यदि होता है, तो वे गुरु-शिष्य नहीं है ! जिस गुरुभक्तको अपने सद्गुरुकी सभी बातें स्वीकार्य होती हैं, उसे ही शिष्य कहते हैं । आगे उन भक्तने बताया कि उन्होंने अपने गुरुका साथ इसलिए छोड दिया; क्योंकि गुरु उन्हें नहीं, अपितु किसी और शिष्यको अपना उत्तराधिकारी बनाने जा रहे थे, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं था । शिष्य सद्गुरुके पास उनकी चरणोंकी सेवा करने और ज्ञान पाने जाता है, जो पद पाने जाए, वह शिष्य नहीं हो सकता !
सादर वंदन।
आध्यात्मिकता में इतने उच्च स्तर पर पहुँच कर भी मन में पद पाने की लालसा शेष रहे, तब सामान्य जन जो आध्यात्म के विषय में कुछ भी नहीं जानता कैसे गुरू धारण करे ?