सन्त अथवा गुरुको असत्य बोलना महापाप है !


मैंने पाया है कुछ तथाकथित साधक सन्तोंसे या अपने गुरुसे झूठ बोलते हैं, शास्त्र कहता है, झूठ बोलना या मिथ्या बोलना पाप है और सन्तोंसे झूठ बोलना एक अक्षम्य अपराध है ! सन्तोंसे कुछ छिपा नहीं होता है; अतः उनसे झूठ बोलकर भी आप उनसे कुछ भी छुपा नहीं सकते हैं अपितु ऐसा करनेसे आपकी साधनाका क्षरण एवं अवकृपा होती है । झूठ बोलना अहंकारका लक्षण है और अहंकारी व अपनी मिथ्या प्रदर्शन करनेवाले लोग सन्तोंको कभी भी प्रिय नहीं होते हैं । शास्त्रोंमें कहा गया है कि गौ एवं विप्रके प्राणकी रक्षा हेतु ही मात्र असत्य बोलनेपर पाप नहीं लगता है और आपात स्थितिमें किसीकी भलाईके लिए असत्य बोला जा सकता है; किन्तु उससे भी नूतन लेन-देनके संस्कार निर्माण होते हैं; अतः साधक बनने हेतु सामान्य धर्माचरण सीखें !
* मनु महाराजने धर्मके दस लक्षण बताए हैं –
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌ ।।  – मनुस्‍मृति (६.९२)

अर्थ : धृति (धैर्य), क्षमा (अपना अपकार करनेवालेका भी उपकार करना), दम (सदैव  संयमसे धर्ममें लगे रहना), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच (भीतर और बाहरकी पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियोंको विषय-वासनाओंमें लिप्त न कर, उसे धर्माचरणमें लगाना), धी (सत्कर्मोसे बुद्धिको बढाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना), सत्यम (सदैव सत्यका आचरण करना) और अक्रोध ( क्रोधको त्यागकर शांत रहना)।
* याज्ञवल्क्य महर्षिने भी धर्मके नौ  लक्षण बताए हैं जिसमें सत्यका पालन करना समाहित है –
अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह: ।
दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌ ।।

अर्थ : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियोंको वशमें रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति ये सब धर्मके साधन हैं ।
* महाभारतमें महात्मा विदुर द्वारा धर्मके आठ अंग बताए हैं –
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ।
उनका कहना है कि इनमेंसे प्रथम चार इज्या आदि अंगोंका आचरण मात्र प्रदर्शनके लिए भी हो सकता है; किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगोंका आचरण करने वाला महान बन जाता है ।
* पद्मपुराणमें कहा गया है –
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते ।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते ।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत ।।

अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगोंसे युक्त होनेपर ही धर्मकी वृद्धि होती है ।
धर्मशास्त्रोंसे ये उद्धरण इसलिए दे रही हूं कि आपकी बुद्धि यह जान ले कि धर्माचरण करना यह साधकका कर्तव्य है और सत्य बोलना यह धर्माचरणका अविभाज्य अंग है; इसलिए सत्यका अनुसरण करें । एक असत्य संभाषण आपको अनेक असत्य बोलने हेतु बाध्य कर सकता है अर्थात आप पापकर्मोंकी श्रृंखला निर्माण करेंगे, जिससे आपकी साधनाका क्षरण होगा और आपकी वृत्तिमें अप्रमाणिकता यह अवगुण अंकित होगा, जिसे मिटानेमें अनेक वर्ष या जन्म भी लग सकते हैं !



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