पितरोंके छायाचित्र घरमें क्यों नहीं रखना चाहिए ? (भाग – ३)


जब तक माता-पिता, दादा-दादी देहमें हों तो उनकी आज्ञाका पालन करना, उनकी सेवा-शुश्रुषा कर उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए । आजकल लोग यह तो करते नहीं और मरनेके पश्चात उनके छायाचित्र लटकाकर पूजा करते हैं ! जब पूर्वज देहमें थे तो आपने उनका अनादर किया और अब आप उनकी पूजा कर रहे हैं तो क्या आपकी इस कृतिसे वे प्रसन्न हो जाएंगे ? ध्यान रहे, यदि माता-पिता या अन्य किसी पितरको आपने अपने वर्तनसे बहुत दुखी किया हो और उन्हें गति न मिली हो तो वे मृत्यु उपरान्त आपको बहुत अधिक कष्ट देंगे और उनके छायाचित्र लगाकर आप उनका कार्य और सरल कर देते हैं ! इस सम्बन्धमें धर्मप्रसारके मध्य मेरे अनेक अनुभव एवं अनुभूतियां हैं, जिनमेंसे कुछ प्रसंग आपसे इस लेख एवं अगले लेखोंमें साझा करूंगी, जिससे आपको यह विषय और सुस्पष्टतासे समझमें आए ।
ख्रिस्ताब्द १९९९  की बात है, मैं झारखण्डके धनबाद जनपदमें धर्मप्रसार कर रही थी । मेरा आना-जाना एक निकट सम्बन्धीके घर कभी-कभी होता था । उनके घरमें तीन पुत्र एक ही साथ रहते थे; किन्तु सभीकी रसोई भिन्न थी । एक दिवस उन पुत्रोंकी माताजीने कहा, “मुझे कटहलकी तरकारी बहुत अच्छी लगती है और आज छोटी बहूने बनायी थी; यह जानते हुए भी कि मुझे कटहल रुचिकर है और मैं आंगनमें भोजन कर रही थी, तब भी छोटी बहुने एक बार भी नहीं पूछा, मुझे आज इस बातका बहुत दुःख हुआ ।” मैंने उनसे कहा, “बडे भैया तो आपका इतने अच्छेसे ध्यान रखते हैं, आपके लिए कटहलकी तरकारी भी बनवाते हैं तो आप ऐसे पुत्रोंसे क्यों अपेक्षा रखती हैं, जो आपके लिए कुछ करना नहीं चाहते हैं ?” वे थोडी रुष्ट होकर बोलीं, “मैंने तो तीनोंको नौ माह गर्भमें रखा था और छोटेको तो सबसे अधिक प्रेम दिया है तो क्या मुझे उससे इतनी सी भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए ? मेरे शेष दो पुत्र तो मुझे कभी एक पान तक लाकर नहीं देते हैं ।” वे नियमित पान खाती थीं । तीनों भाईयोंसे मेरा परिचय था तो मैंने छोटे भाईको कहा, “आप अपनी माताजीके लाडले पुत्र है, उन्हें मात्र सौ रुपए प्रति माह उनके हाथमें पान खानेको क्यों नहीं दे देते हैं ?” उन्होंने कहा, “बडे भैया तो बहुत कमाते ही हैं और उन्हें अच्छेसे रखते भी हैं, मैं उनसे बहुत कम कमाता हूं, मैं उन्हें पैसे व्यर्थ करने हेतु नहीं दे सकता !” उनका यह उत्तर सुनकर मुझे दुःख हुआ ! मैं उन्हें बहुत पहलेसे जानती थी और वे अपने माताजीके कभी लाडले हुआ करते थे; क्योंकि वे सभी सन्तानोंमें सबसे छोटे थे; किन्तु विवाहके पश्चात उनकी पत्नीके आनेपर उन्होंने अपनी मांकी पूर्ण रूपसे उपेक्षा करनी आरम्भ कर दी थी, जो एक मांके हृदयको बहुत दुःख देता है । उनकी इस वृत्तिसे उनके पिताजी भी दुखी रहते थे; किन्तु वे कुछ कहते नहीं थे ।
मैं अगस्त २००० में उत्तर प्रदेश प्रसार हेतु आ गई और मेरा उनसे सम्पर्क टूट गया । सितम्बर २००७ में मैं कुछ आवश्यक वैयक्तिक कार्यसे धनबाद गई तो उनके घर भी गई थी । मुझे देखकर छोटेवाले भाई और भाभी फूट-फूट कर रोने लगे ! मैंने पूछा, “क्या हुआ ?”, तो उन्होंने बताया कि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो चुकी है, उनकी दुकान बिक चुकी है और बच्चोंको शासकीय विद्यालयमें पढाने हेतु भी उनके पास पैसे नहीं हैं ! उनके अश्रु देख, मैं थोडी दुखी हो गई; क्योंकि चाहे वे जैसे हो, मुझसे उनकी बहुत आत्मीयता थी । मैंने सूक्ष्मसे उनके इस अकस्मात आए दुखके कारणका निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि उनके पिताजी, जो अब इस संसारमें नहीं थे, उनकी गति नहीं हुई थी, उन्होंने ही इनकी यह स्थिति कर दी थी ! मैंने उनसे कहा, “जो कहूंगी वे करेंगे क्या ?” मरता क्या न करता ! उन्होंने और उनकी पत्नीने हामी भरी ! मैंने कहा, आपको बोला था न माता-पिताका ध्यान रखा करें । अब आपके स्वर्गीय पिताजी, जिन्हें गति नहीं मिली है, वे आपको ये कष्ट दे रहे हैं !” उन्होंने कहा, “पर क्रोधित तो मां होती थीं !” मैंने कहा, उन्हें गति मिल गई; क्योंकि वे विनम्र थीं और उनपर किसी गुरुकी कृपा भी थी, किन्तु पिताजीमें अहंकार अधिक था; इसलिए वे अटक गए हैं ।” उनकी माताजी मुझसे बहुत प्रेम करती थीं और वे धर्मप्रसारमें मेरी सहायता भी करती थीं व पिताजी मुझे साधना छोडकर सांसारिक जीवन व्यतीत करने हेतु सदैव कहते रहते थे । एक स्त्रीका धर्मप्रसार करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था !
उन्होंने कहा, “बडे भैया और मंझले भैयाको तो कोई कष्ट नहीं दे रहे हैं, तो मात्र मुझे क्यों ?”  मैंने कहा, “बडे भैयासे जो हुआ, वह उन्होंने सदैव उनके लिए किया और मंझले भैया तो किसी योग्य नहीं, आपको ज्ञात ही है । वे चरस-गांजा-मद्यके व्यसनमें डूबे रहते हैं; इसलिए जो आपने उनके जीवित रहते नहीं किया, वह अब करें । प्रत्येक माह उनकी मृत्यु तिथिपर एक सात्त्विक ब्राह्मणको बुलाएं, पिताजीको जो भोजन प्रिय था, वह कराएं और एक वर्ष उपरान्त ब्राह्मणको वस्त्र-अन्न आदि सब दान करें एवं प्रतिदिन एक घण्टा ‘ॐ श्रीगुरु देव दत्त’का जप करें ।” उनकी स्वार्थी पत्नीने कहा, “परन्तु हमारे पास पैसे तो नहीं है !” अब भी उनकी यह वृत्ति देख मैंने कहा, “आप सब प्रतिदिन भोजन कैसे करते हैं ?” उन्होंने कहा, “उधार लेकर घर चल रहा है” तो मैंने कहा, उधार लेकर ब्राह्मण भोजन कराएं । जिस माता-पिताने आपको पति दिया है, जिससे आपका यह संसार बसा है, उनके प्रति जो चूक आप दोनोंसे हुई है, उसे सुधारें या ऐसे ही दरिद्रतामें दिन निकालें । छोटे भैयाको अपनी चूकका भान हुआ, उन्होंने नेत्रोंमें अश्रुके साथ कहा, “तुमने जो बताया है, मैं अवश्य करूंगा ।” एक वर्ष पश्चात मुझे किसीसे ज्ञात हुआ कि वे अब सुखी हैं एवं उन्हें किसी बडी दुकानमें चाकरी मिल गई है, बच्चे पढ रहे हैं और सब ठीक हैं ।
आपलोगोंको यह सब क्यों बता रही हूं ?, क्योंकि आजकल अधिकांश स्त्रियां अपने सास-ससुरको फूटी आंख नहीं देखना चाहती हैं और अपने पतिको भी उनके लिए कुछ भी करने नहीं देती हैं । वहीं अपने माता-पिता या मायके पक्षके लिए उनके मनमें बहुत प्रेम और आदर भाव होता है, ऐसी सभी स्त्रियोंको इस लेखके माध्यमसे एक सन्देश देना चाहूंगी कि विवाह पश्चात आपका प्रेम, आदर एवं सेवा भाव अपने सास-ससुरके प्रति जितना अधिक होगा, आपका और आपकी सन्तानोंका जीवन उतना सुखी होगा । ध्यान रहे, आपकी संतानें आपसे सब कुछ सीखती हैं और आप भी एक दिवस वृद्ध होंगी; अतः सास-ससुरके प्रति कृतज्ञताका भाव रख उनकी सेवा करें और उनकी आज्ञाका पालन करें, यह आपका विवाह उपरान्त मुख्य स्त्री धर्म है । (क्रमश: )



One response to “पितरोंके छायाचित्र घरमें क्यों नहीं रखना चाहिए ? (भाग – ३)”

  1. बहुत ही महत्वपूर्ण संदेश, समझने वाले समझ सकतें हैं और न समझने वाले तो कष्ट भोगेंगे ही, यह भी अवश्य ही है।

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