पितरोंके छायाचित्र घरमें क्यों नहीं रखना चाहिए ? (भाग – ४)


कुछ लोग कहते हैं कि हमारे शास्त्रोंमें पितृपूजाका उल्लेख है । हां, शास्त्रोंमें ‘पितृपूजा’ यह शब्द अनेक स्थानोंपर प्रयोग किया गया है; किन्तु उसका भावार्थ पितरोंके छायाचित्रकी पूजासे कदापि नहीं है । जैसे कुछ आध्यात्मिक रूपसे अज्ञानी, जिन्हें किञ्चित मात्र ही संस्कृत भाषा आती है, वे वेदोंमें लिखे गए तथ्योंका अनर्थ निकालते हुए कहते हैं कि ‘वेदोंमें गो हत्या’ कही गई है; वैसे ही कुछ अज्ञानी यह कहते हैं कि पितृपूजाका अर्थ पितरोंके छायाचित्रोंकी पूजा करना है ! जैसे एक वाचस्पतिद्वारा (पीएचडी छात्रद्वारा) लिखित शोधपत्रको एक बालविहारका छात्र नहीं समझ सकता है, उसीप्रकार आत्मज्ञानी सन्तोंद्वारा लिखित तत्वज्ञानको बिना साधनाके तपोबलके समझना असम्भव है ।   
हमारे धर्मग्रंथोमें पितरोंकी पूजाका अर्थ है, पितरोंके लिए पिण्डदान, जल-तिल-तर्पण, काक-बलि, गौ-ग्रास अर्पित करना, त्रयपाक्षिक श्राद्ध, मासिकश्राद्ध, वार्षिकश्राद्ध, महालयश्राद्ध और विशेष श्राद्ध विधियां जैसे नारायणबलि, नागबलि, कालसर्प शांति आदिका विधान करना; न कि पितरोंके छायाचित्रोंकी पूजा करना ! इसीलिए धर्मके तत्त्वज्ञानको आत्मज्ञानी महापुरुषोंसे सीखने हेतु कहा गया है ! जब हम योग्य गुरुकी शरणमें साधना किए बिना ही धर्मशास्त्रोंका अर्थ निकालते हैं तो ऐसे ही अनर्थ निकलकर आते हैं; इसलिए हिन्दू राष्ट्रमें सभीमें साधनाका संस्कार बाल्यकालसे ही अंकित किया जाएगा एवं गुरु-शिष्य परम्पराकी पुनर्स्थापना की जाएगी । – तनुजा ठाकुर



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