पितरोंके छायाचित्र घरमें दृष्टिके समक्ष नहीं रखने चाहिए, इसपर जब भी कभी किसी सत्संग या प्रवचनमें बताती हूं तो कुछ श्रोता अवश्य ही शंका समाधानके समय कहते हैं कि यदि कोई पण्डित, पुरोहित या विद्वान पुरुष ऐसा करनेके लिए कहते हैं तो हम क्या करें ? आपमेंसे भी कुछ पाठकोंके मनमें यह शंका होगी; इसलिए इस तथ्यको आज स्पष्ट करना चाहूंगी ।
आपको आज जो भी सूक्ष्म जगतसे सम्बन्धित बातें बता रही हूं, वे पढी-पढाई या रटी-रटाई नहीं बता रही हूं । ईश्वरीय कृपासे मेरी सूक्ष्म इन्द्रियां १९ वर्षकी आयुसे ही अकस्मात जागृत हो गई थी और सूक्ष्मसे मुझे अनेक बातें तब भी समझमें आती थीं जबकि मैंने विधिवत साधना भी आरम्भ नहीं की थी या विशेष समय साधनाको नहीं देती थी । बिना साधनाके मुझे सूक्ष्मसे सम्बन्धित बातें कैसे ज्ञात हो जाती हैं ?, इसका शोध करने हेतु ही मैं अध्यात्मकी ओर प्रवृत्त हुई; किन्तु ईश्वरीय कृपा और माता-पिताके सस्कारोंके कारण मैं बिना दिशाभ्रमित हुए, भिन्न सन्त-साहित्यका पांच वर्षोंतक वृहद अभ्यास किया, उसके पश्चात साधना आरम्भ की एवं उसके दो वर्ष उपरान्त मुझे गुरु मिले । मेरे श्रीगुरुने मुझे धर्मप्रसारकी सेवा दी । उनके सूक्ष्म सम्बन्धित ज्ञानसे मैं उनके प्रथम ग्रन्थको पढकर ही अभिभूत थी; अतः उनसे इस ज्ञानको सीखनेकी मन ही मन इच्छा भी प्रकट की थी, जो मैं पूर्वके लेखोंमें बता ही चुकी हूं । आत्मज्ञानी गुरु अन्तर्यामी होते हैं और मेरे श्रीगुरु भी, मेरी इस सूक्ष्म इच्छाको जान चुके थे और उनके मार्गदर्शनसे मुझे इसकी अनुभूति होती थी; क्योंकि मैं जब वर्षमें एक या दो बार उनके पास दो-चार दिनोंके लिए जाती तो वे मेरे सूक्ष्म ज्ञानकी अवश्य परीक्षा लेते थे, वस्तुत: साधनाद्वारा, वे मुझे, मेरा सूक्ष्म ज्ञान कितना परिष्कृत हो रहा है, इसका मुझे भान हो, यह बतानेका प्रयास करते थे ! अपने श्रीगुरुके इन्हीं गुणोंके कारण मैं उनका नित्य पूजन करती हूं !
जून १९९७ से आज तक धर्मप्रसारके मध्य जहां भी रही, मैं स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही पक्षोंका सतत अभ्यास करती रही एवं ऐसे अनुभवों तथा अनुभूतियोंका संकलन अब मैं समाजहित हेतु कर रही हूं । अतः मैं आपको कोई भी बात बिना स्वयं अनुभूति लिए नहीं बता रही हूं और भविष्यके लेखोंमें इससे सम्बन्धित कुछ प्रसंगों या अनुभूतियोंका भी उल्लेख मैं करनेवाली हूं, हो सकता है यह सब मैं अपने ग्रन्थ ‘सूक्ष्म जगत’में विस्तारसे करूं; इसलिए जो बता रही हूं उसका स्थूल एवं सूक्ष्म आधार है ।
रही बात पण्डितों और पुरोहितोंकी, तो आज मात्र २ % पुरोहित वर्गको सूक्ष्मसे सम्बन्धित बातें समझमें आती हैं, यह भी मैं अपने स्थूल एवं सूक्ष्म दोनोंके ही आंकडोंके आधारपर कह रही हूं ! इसलिए मेरी इच्छा है कि उपासनाके निर्माणाधीन वैदिक गुरुकुलमें, जिसमें पुरोहित पाठशाला भी होगी, उसमें सभी पुरोहितोंको सूक्ष्म सम्बन्धी ज्ञान भी सिखाया जाए, जिससे यज्ञमें वे जो आहुति दे रहे हैं, वो देवताओंको जा रही है या असुरोंको, वह उन्हें भी ज्ञात हो ! जी हां, अनेक बार जब मैं किसी यज्ञमें या पूजन या अनुष्ठानमें जाती हूं तो वहां देवता आहुति हेतु आते ही नहीं हैं ! सूक्ष्मका ज्ञान, अधिकांश पण्डितोंको होता नहीं है; इसलिए वे सोचते हैं कि किसी भी प्रकार पूजा करो, मन्त्र पढो, सब देवता तक पहुंचते ही हैं, किन्तु ऐसा है नहीं ! आपको मेरी बातोंपर सम्भवतः विश्वास नहीं होगा, इसलिए जुडे रहें और साधना करते रहें, आपको भी सब सिखाया जाएगा !
रही बात विद्वानोंकी, तो ऐसी ईश्वरीय कृपा है कि उत्तर भारतके अधिकतर बडे नगरों एवं महानगरोंमें तथा अनेक विश्वविद्यालयोंके प्राध्यापकोंसे अध्यात्म विषयपर मेरी चर्चा होती रही है ! मेरी वृत्ति है कि मैं सन्तोंसे कभी तर्क नहीं करती हूं और विद्वान यदि अहंकारी हों एवं उन्हें मात्र शाब्दिक ज्ञान हो तो उनसे भी शास्त्रार्थ नहीं करती हूं ! उन्हें अपने तथ्य सुस्पष्ट शब्दोंमें बता देती हूं, यदि उन्हें स्वीकार्य होता है एवं वे उसमें कुछ और तथ्य साझा करते हैं तो मैं उनसे सीखनेका प्रयास करती हूं एवं यदि वे कुतर्क करते हैं तो मैं नम्रतापूर्वक उस शास्त्रार्थसे हट जाती हूं; क्योंकि जिन्होंने अध्यात्मके सूक्ष्म पक्षका अभ्यास ही नहीं किया है, उनसे कुतर्क करना मैं समयको व्यर्थ करना मानती हूं; क्योंकि ऐसे विद्वानोंके विषयमें शास्त्र भी कहता है –
पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः ।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा ॥ – चाणक्य नीति
अर्थ : चतुर व्यक्ति सारे वेदों और अनेक धर्मग्रंथोंको पढता है; परंतु उसे आत्मतत्त्वका ज्ञान नहीं हो पाता; जैसे कडछी, जो भोजन पकानेमें सहायता करती है, उसे भोजनका स्वाद नहीं पता होता ।
इसलिए अध्यात्ममें किसकी सुनें और किसकी नहीं, इसका आपको अभिज्ञान अवश्य ही होना चाहिए और जब आप योग्य साधना करते हैं, तभी आपमें यह वैशिष्टय स्वतः जागृत होता है ।
जो मैं आपको बता रही हूं, वह हमारे आत्मज्ञानी श्रीगुरुने बताया है, मैंने तो मात्र इस दिशामें जो अनुभूति ली है, उसका विस्तृत वर्णन कर रही हूं, क्योंकि शिष्यका कार्य ही है गुरुके सूत्रको विस्तारसे अपनी अनुभूतिके आधारपर समाजको बताना और मैं वही कर रही हूं !
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