एक संतके पास एक शिष्य गया और बोला, “गुरुजी, आप कृपाकर कल मेरे घर भोजन हेतु पधारें !” शिष्यका विनम्रतापूर्वक निवेदन एवं आग्रह सुनकर संत महाराज बोले, “उचित है, मैं कल मध्याह्नमें (दोपहरमें) तुम्हारे घर भोजन करने आऊंगा ।”
यह सुनकर शिष्य अत्यन्त आनन्दित होकर वहांसे प्रस्थान कर गया और अगले दिवस गुरुजीके भोजन हेतु उसने बहुतप्रकारके पकवान बनाए ।
मध्याह्नके समय जब शिष्य गुरुजीकी प्रतीक्षा कर रहा था तो एक भिक्षुक आया और भिक्षा मांगते हुए बोला, “क्या कुछ भोजन मिलेगा ?, मुझे बहुत भूख लगी है ।”
शिष्यने उसको वहांसे कुछ भिक्षा दिए बिना ही भगा दिया । उसके कुछ क्षण पश्चात वहां एक साधु आया और शिष्यसे बोला, “क्या कुछ भोजन मिल सकता है ?”; किन्तु उस शिष्यने साधुको भी बिना भोजन दिए वहांसे प्रस्थान करनेको कह दिया ।
तत्पश्चात उसी स्थानपर एक श्वान (कुत्ता) आया और शिष्यने उसे भी लाठी मारकर भगा दिया । इसप्रकार शिष्यको गुरुजीकी प्रतीक्षा करते हुए संध्या हो गई; किन्तु गुरुजी भोजनके लिए नहीं पधारे।
तत्पश्चात शिष्य गुरुजीके पास पहुंचा और बोला, “गुरुजी, आपने तो कहा था कि आप भोजन करने मध्याह्नको मेरे घर आएंगे और इसी कारण मैंने बहुतसे व्यंजन बनाए; परन्तु आप आए ही नहीं ।
यह सुनकर संतजीने मुस्कुराते हुए कहा, “पुत्र, मैं तो तुम्हारे घर भोजन करने हेतु तीन बार आया था; परन्तु तुमने मुझे एक बार भी भोजन नहीं दिया । भिक्षुक, साधु और श्वान, इन तीनोंके रूपमें मैं ही तुम्हारे घर भोजन करने आया था; किन्तु प्रत्येक अवसरपर तुमने मुझे बिना कुछ दिए ही वहांसे लौटा दिया ।
इसके पश्चात संत महाराज शिष्यको समझाते हुए बोले, “यदि तुम यह चाहते हो कि मैं अपने इसी स्थूल स्वरूपमें आऊं तो तुम मुझे नहीं, मेरी इस देहको पूजते हो । इसी कारण जब मैं रूप परिवर्तित करके तुम्हारे पास आया तो तुमने मुझे कुछ भी नहीं दिया । इसके गूढ अर्थको समझने हेतु आवश्यक है कि तुम सभी जीवोंमें परमात्माके स्वरूपको जानो और अपने अद्वैत भावको दृढ करो ! अद्वैत भावमें हम देहको नहीं, अपितु उस देहमें समाहित परमात्माके स्वरूपका दर्शन करते हैं ।
यथार्थमें परमात्मा तो सर्वव्यापी हैं और हम योग्यप्रकारसे साधना करें तो प्रत्येक स्थान, जीव एवं वस्तुमें उनका दर्शन प्राप्त कर सकते हैं ।
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