साधकके गुण (भाग- १४)
सहसाधकसे अपने चूकें पूछ कर लेना और यदि वह चूकें बताए तो उन्हें सहजतासे स्वीकार करना
जो साधक एकाकी साधना करता है, उसकी अपेक्षा जो सह-साधकोंसे साथ रह कर साधना करता है, उसकी प्रगति अधिक शीघ्र होती है; इसीलिए आश्रमका निर्माण सन्त करते हैं जिससे साधक-जीव एक साथ रहकर अपनी साधना हेतु पोषक, सर्व तथ्योंको अंगीकृत करें | साधक मूलत: विनम्र होता है और उसमें सीखनेकी वृत्ति होती है; इसलिए वह स्वयंमें सुधार हेतु सतत प्रयास करता है | अपने मिलनसार स्वाभाव, विनम्रता एवं प्रेमके कारण वह सह-साधकोंका प्रिय बन जाता है, ऐसेमें जब सह-साधक उसकी चूकें बताता है तो वह उसे सुनकर लेता है और उसमें सुधार करनेका प्रयास करता है | कोई भी सेवा समाप्त होनेपर वह अपनी चूकें सबसे विनम्रतासे पूछकर लेता है, इससे अन्य साधकद्वारा बताये गई चूकोंको बिना प्रतिक्रिया दिए उसे स्वीकार करता हैं और स्वयंमें सुधार करने हेतु प्रयत्नशील रहता है ! साधानका अर्थ ही है अपने षड्रिपुओंपर विजय और यह एक दिवसमें नहीं होता ऐसेमें गुरुद्वारा निर्माण किया गया समष्टि जीवन उसकी साधना हेतु अत्यन्त पोषक होता है !
यदि कोई व्यक्ति अपनी चूकोंपर प्रतिकिया या स्पष्टीकरण देता है, चूक बतानेवालेके प्रति वैरभाव या घृणा या द्वेष करता है तो ऐसे लोगोंने समझना चाहिए कि उनमें साधकत्वका प्रमाण बहुत ही अल्प है या है ही नहीं !
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