साधकके गुण (भाग- १६)


अपने सह-साधकोंसे द्वेष न करना
द्वेष करना, यह षड्रिपुओंमेंसे एक मुख्य रिपु है । साधनाके मध्य अनेक बार कुछ साधक अपने सह-साधकोंसे कुछ वीशिष्ट कारणोंसे द्वेष करने लगते हैं, ऐसेमें अनेक बार उनसे जाने-अनजाने पापकर्म हो जाते हैं, जिससे उनकी साधनाका क्षरण होता है । सदैव ध्यान रखें, गुरु या ईश्वर, कभी भी किसीके साथ अन्याय नहीं करते हैं, आप उनके लिए जो भी करते हैं, या आपकी जैसी पात्रता होती है, उसके अनुरूप वे आपको सब कुछ देंगे ही, ऐसेमें धैर्य और संतोष रखना चाहिए एवं यदि आजतक कुछ न मिला हो तो सह-साधकसे इर्ष्या करनेकी अपेक्षा, वे क्या करते हैं कि गुरुने उन्हें इतना दिया है, इसपर चिंतन कर, वैसी ही साधना करनेका प्रयास करना चाहिए और इस हेतु उत्कंठासे साधना बढानी चाहिए ।
    यदि गुरु, मेरुमणि होते हैं तो सह-साधक उनकी बनाई समष्टि साधना रुपी मालाके मोती होते हैं, ऐसेमें जो गुरुकी इस समष्टिसे निष्काम प्रेम करता है तो वह गुरुका प्रिय बन जाता है ! सर्वज्ञ ईश्वर या गुरुको हमारे मनोभाव त्वरित ज्ञात होते हैं, इसलिए अपने हृदयको पवित्र और प्रेमसे ओत-प्रोत रखना चाहिए । इससे उनकी कृपा शीघ्र मिलती है, वस्तुत: जो गुरुके सभी भक्तोंसे अत्यधिक प्रेम करता है या सृष्टिके सभी जीवोंपर बिना भेदभाव या राग-द्वेषके अपनी प्रेम उडेलता है, वह अपनी इस व्यापकता रुपी गुणके कारण गुरु या ईश्वरसे कब एकरूप हो जाता है, यह उसे भी ज्ञात नहीं होता है ।
 इसलिए यदि कभी किसी साधकके प्रति द्वेष उत्पन्न हो जाए तो तत्क्षण गुरुके प्रति स्थूल या सूक्ष्मसे शरणागत होकर उनसे क्षमा मांगनी चाहिए और वैसे भाव पुनः न आये इस हेतु गुरुसे आर्ततासे प्रार्थना करनी चाहिए । उस साधकके साथ नित्य व्यवहार करते समय इस दोषका कहीं प्रकटीकरण तो नहीं हो रहा है, इसका भी अभ्यास करना चाहिए; क्योंकि राग-द्वेषका मन रुपी पुंज न जाने कब हमें धोखा दे दे, इसलिए यदि अपने वर्तनसे ऐसे साधकोंका कभी भी जाने-अनजाने मन दुखाते हैं तो उनसे, अपने मनके विरुद्ध जाकर करबद्ध होकर क्षमा याचना करनी चाहिए, इससे मनके द्वेष धुलते हैं और पाप भी न्यून हो जाते हैं । ऐसा सम्भव है कि गुरुके पास कोई साधक अनेक वर्षसे सेवारत हो और गुरु उसे कुछ विशेष न दें; किन्तु कुछ माह पूर्व आये साधकको गुरु महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व दे दें या उनकी बहुत स्तुति करें तो ऐसा समझना चाहिए कि निश्चित ही इसके भी कुछ कारण होंगे । जैसे सांसारिक जगतमें हमसे कोई अधिक धनवान होता है वैसे ही अध्यात्मके क्षेत्रमें भी हमसे कई साधक अधिक उन्नत होते हैं, वह उनके पूर्व जन्मों या इस जन्मकी साधनाका प्रताप होता है, उसे सहजतासे स्वीकार करना, इसे साधकत्व कहते हैं । और यदि हम गुरु या ईश्वरको एक ढेला भी अनमने मनसे देते हैं तो वे उसे भी स्वीकार कर उसके स्थानपर हमें कुछ अच्छा ही देते हैं, मात्र अपनी अज्ञानता या अहंके कारण हमें वह दिखाई नहीं देता है; क्योंकि गुरुका आपसे कुछ स्वीकार कर, उसके स्थानपर कुछ नहीं देंगे तो हम उनसे अधिक श्रेष्ठ या शक्तिवान नहीं हो जाएंगे; किन्तु क्या ईश्वरके प्रतिनिधि, गुरुसे, ऐसी कभी चूक हो सकती है ?, किंचित सोचें !


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