प्रेरक प्रसंग – हम सब निमित्त मात्र हैं !
महाभारत युद्ध चल रहा था । अर्जुनके सारथी श्रीकृष्ण थे । जैसे ही अर्जुनका बाण छूटता, कर्णका रथ कोसों दूर चला जाता । जब कर्णका बाण छूटता तो अर्जुनका रथ सात पग पीछे चला जाता । श्रीकृष्णने अर्जुनके शौर्यकी प्रशंसाके स्थानपर कर्णके लिए प्रत्येक बार कहते कि कितना वीर है यह कर्ण ? जो उस रथको सात पग पीछे धकेल देता है ।
अर्जुन बडे उद्विग्न हुए । असमंजसकी स्थितिमें पूछ बैठे, “ हे वासुदेव ! यह पक्षपात क्यों ? मेरे पराक्रमकी आप प्रशंसा करते नहीं एवं मात्र सात पग पीछे धकेल देनेवाले कर्णकी बारम्बार प्रशंसा करते हैं ।“
श्रीकृष्ण बोले, “अर्जुन तुम जानते नहीं ! तुम्हारे रथमें महावीर हनुमान एवं स्वयं मैं वासुदेव कृष्ण विराजमान हूं ! यदि हम दोनों न होते तो तुम्हारे रथका अभी अस्तित्व भी नहीं होता । इस रथको सात पग भी पीछे हटा देना कर्णके महाबली होनेका परिचायक है । अर्जुनको यह सुनकर अपनी क्षुद्रतापर ग्लानि भी हुई ।
इस तथ्यको अर्जुन और भी भली-भांति तब समझ पाए, जब युद्ध समाप्त हुआ ।
प्रत्येक दिन अर्जुन जब युद्धसे लौटते श्रीकृष्ण पहले उतरते, उसके पश्चात सारथी धर्मको निभाते अर्जुनको उतारते । अंतिम दिवस वे बोले, “अर्जुन ! तुम पहले रथसे उतरो व थोडी दूरी तक जाओ ।” भगवानके उतरते ही घोडे सहित रथ भस्म हो गया । अर्जुन आश्चर्यचकित थे । भगवान बोले, “पार्थ ! तुम्हारा रथ तो कभीका भस्म हो चुका था। भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य व कर्णके दिव्यास्त्रोंसे यह कभीका नष्ट हो चुका था । मेरे संकल्पने इसे युद्ध समापनतक जीवित रखा था।”
अपनी विजयपर गौरवान्वित अर्जुनके लिए गीता श्रवणके पश्चात इससे बढकर और क्या उपदेश हो सकता था कि सब कुछ भगवानका किया हुआ है । वह तो निमित्त मात्र था |
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