प्रेरक कथा – वीर बालिका रत्नावती


वीर बालिका रत्नावती
जैसलमेर नरेश महारावल रत्नसिंह अपने दुर्गसे बाहर शत्रुओंका दमन करने गए थे । जैसलमेर दुर्गकी रक्षाका भार उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावतीको सौंप दिया था । इसी समय देहलीके मुसलमान शासक अलाउद्दीनकी सेनाने जैसलमेरको घेर लिया । इस सेनाका सेनापति मलिक काफूर था । दुर्गके चारों ओर विशाल मुसलमान सेना पडाव डालकर युद्धकी सिद्धता करने लगी; परन्तु रत्नावती इससे तनिक भी विचलित नहीं हुई । वह वीरांगना सैनिकका वेश बनाए, खड्ग बान्धे, धनुष बाण लिए, अश्वपर बैठकर दुर्गके ऊपरी भागपर (बुर्जपर) तथा अन्य आवश्यक स्थानोंपर घूमने व सेनाका सञ्चालन करने लगी । जब भी शत्रु सेनाने दुर्गपर आक्रमण किया, रत्नावतीकी चतुरता एवं स्फूर्तिके कारण उन्हें अपने अनेक योद्धा खोकर पीछे हटना पडा । जब अलाउद्दीनके सैनिकोंने देखा कि दुर्गको भेदा नहीं जा सकता तब एक दिवस अनेक शत्रु सैनिक दुर्गकी भीतोंपर (दीवारोंपर) चढने लगे । रत्नावतीने सर्वप्रथम अपने रक्षक सैनिक हटा लिए तथा शत्रु सैनिकोंको चढने दिया । शत्रु सैनिकोंके अत्यधिक ऊंचाईतक चढ जानेके पश्चात रत्नावतीने उनपर पत्थरोंकी वर्षा करने तथा ‘गर्म’ तेल उडेलनेकी आज्ञा दे दी, इससे शत्रुका वह पूरा दल ही नष्ट हो गया । एक अवसरपर एक शत्रु सैनिक घात लगाकर रात्रिमें दुर्गपर चढने लगा; परन्तु रत्नावती अत्यधिक सावधान रहती थी तथा उसने उस सैनिकको देख लिया । सर्वप्रथम उस सैनिकने यह कहकर छल करना चाहा कि मैं तुम्हारे पिताका सन्देश लाया हूं; परन्तु रत्नावतीने निकट आनेसे पूर्व उसका शरीर बाणोंसे बीन्ध दिया । सेनापति मलिक काफूरने अनुभव किया कि वीरतासे जैसलमेरके दुर्गपर विजय प्राप्त करना असम्भव है । उसने दुर्गके द्वारपालको स्वर्ण निर्मित ईटें दीं कि वह रात्रिमें दुर्गका द्वार खोल दे । द्वारपालने रत्नावतीको यह सूचना दे दी; क्योंकि सच्चे सैनिक लोभके वशीभूत होकर अपनी मातृभूमिसे विश्वासघात नहीं करते । रत्नावतीने इसे शत्रुको पकडनेका उत्तम अवसर माना तथा द्वारपालको रात्रिमें दुर्गका द्वार खोल देनेको कह दिया । अर्धरात्रिको मलिक काफूर सौ सैनिकोंके साथ दुर्गके द्वारपर आया । द्वारपालने द्वार खोल दिया । उन सभीके प्रवेश करनेके पश्चात द्वारपाल दुर्गका द्वार बन्द करके उन्हें मार्ग दिखाते हुए आगे ले चला । कुछ दूरी तय करनेके पश्चात वह द्वारपाल किसी गुप्त मार्गसे स्वयं निकल गया । मलिक काफूर तथा उसके सैनिक आश्चर्यचकित रह गए । दुर्गके ऊपरी भागपर खडी रत्नावती अट्टहासकर रही थी । मलिक काफूर तथा उसके सैनिक समझ गए कि अब वे यहांसे लौट नहीं सकते । उन सभीको दुर्गके कारागृहमें बन्द होना पडा । सेनापतिके बन्दी बनाए जानेपर भी मुसलमान सेनाने दुर्गको घेरे रखा । दुर्गका अन्न भण्डार समाप्त होने लगा । राजपूत सैनिक उपवास करने लगे । स्वयं रत्नावती अत्यन्त दुर्बल हो गई; परन्तु उसने ऐसे संकटमें भी राजाके न्याय-धर्मको नहीं त्यागा । अपने कारागृहमें बन्द शत्रुको पीडा नहीं देनी चाहिए, यह श्रेष्ठ राजाका धर्म है । रत्नावती अपने सैनिकोंको प्रतिदिन एक मुट्ठी अन्न देती थी; परन्तु मलिक काफूर तथा उसके साथियोंको दो मुट्ठी अन्न दिया जाता था । अलाउद्दीनने विचार किया कि उसका सेनापति जैसलमेरके दुर्गमें कारागृहमें बन्द है तथा दुर्गपर विजयकी आशा व्यर्थ है, तब उसने अन्ततः महारावल रत्नसिंहजीको सन्धि प्रस्ताव भेज दिया । सन्धि प्रस्ताव स्वीकारनेके पश्चात मुसलमान सेनाने अपना घेरा हटा दिया तथा महारावल रत्नसिंह अपने सैनिकोंके साथ जैसलमेर आ गए । मलिक काफूरने दुर्गके कारागृहसे मुक्त होते समय कहा, “राजकुमारी रत्नावती मात्र एक वीरांगना ही नहीं; अपितु वह एक देवी है । वह पूजन योग्य है । उसने स्वयं भूखे रहकर हम सभीका पालन किया है ।”


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