प्रेरक कथा – दानका रहस्य


 एक गांवमें एक वैश्य रहते थे । वह धर्माचरणी थे तथा सदैव यज्ञादि कर्मोंमें लगे रहते थे । उन्होंने अत्यधिक दान किया । अन्तत: उनका सम्पूर्ण धन समाप्त हो गया तथा उनके लिए भोजन व्यवस्था हेतु भी कुछ शेष न रहा तब सेठ व्यथित हो गए । सेठकी पत्नी धर्माचरणी, पतिव्रता तथा बुद्धिमती भी थीं । पतिको व्यथित देखकर पत्नीने कहा, “आप राजाके पास जाइए, मैंने सुना है कि अपने राजा बडे धर्मानुरागी व्यक्ति हैं, वे अवश्य आपके पुण्योंको मूल्यांकनकर, उन्हें क्रयकर लेंगे, आप उनसे अनुरोधकर कुछ पुण्य विक्रयकर द्रव्य ले आइए, उससे अपनी व्यवस्था हो सकेगी ।” स्त्रीके कथनानुसार सेठ जानेको उद्यत हो गए । अगले दिवस स्त्रीने उनके भोजन हेतु चार रोटियां पोटलीमें बांध दीं, जिन्हें लेकर सेठजी चल पडे । नगरके कुछ समीप मार्गमें एक जलाशय था, वहां रुककर नित्य कर्मादिसे निवृत्त होकर उन्होंने भोजन हेतु अपनी पोटली खोली । उसी समय वहां एक कुत्ता आ पहुंचा । देखनेसे वह अत्यन्त भूखा प्रतीत होता था तथा सेठको कातर दृष्टिसे देख रहा था । सेठको उसपर दया आ गई । पहले सेठने कुत्तेको एक रोटी दी जो उसने खा ली; परन्तु वह वहांसे नहीं हिला तथा पूर्ववत सेठकी ओर उसी प्रकार कातर दृष्टिसे देखता रहा । सेठने एक-एककर दूसरी, तीसरी तथा चौथी सभी रोटियां उस कुत्तेको दे दीं, कुत्ता सन्तुष्ट होकर वहांसे चला गया । तत्पश्चात सेठ भूखे ही राजाके पास पहुंचे तथा राजासे अपने आनेका प्रयोजन बताकर कहा, “आप मेरे पुण्योंमेंसे कौनसा पुण्य क्रय करेंगे ?” राजाने कुछ क्षण विचार करनेके पश्चात कहा, “आप सन्ध्या बेलामें मेरे पास आइए ।” तदुपरान्त राजा वैचारिक द्विविधाकी स्थितिमें अपने राजपुरोहितके निकट गए, उनसे यह घटना साझा की तथा इसका समुचित समाधान निश्चित करनेका अनुरोध किया । राजपुरोहित उच्च कोटिके महात्मा थे, राजाकी व्यथा सुनकर वह हंसने लगे तथा उन्होंने समाधान बताकर राजासे कहा, “राजन, सेठको सन्ध्या बेलामें आने दें !” सेठजी नियत समयपर राजदरबारमें पधारे तथा राजासे कहा, “महाराज, बताइए आप मेरे पुण्योंमेंसे कौनसा पुण्य क्रय करेंगे ?” राजाने उत्तर दिया, “आज आपने जो यज्ञ किया है, हम उसी यज्ञके पुण्यको क्रय करना चाहते हैं ।” सेठने कहा, “महाराज, मैंने तो आज कोई यज्ञ नहीं किया । मेरे पास धन था ही नहीं, मैं यज्ञ कैसे कर सकता हूं ?” राजाने कहा, “आज आपने जलाशयके तटपर बैठकर स्वयं भूखे रहकर भूखे कुत्तेको चार रोटियां दी हैं, मैं उसी पुण्यको क्रय करना चाहता हूं ।” सेठने आश्चर्यचकित होकर कहा, महाराज, उस क्षण तो वहां मेरे अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं था, आपको इसका पता कैसे चला ?” राजाने राजपुरोहितकी ओर संकेतकर कहा, “मेरे गुरु सर्वज्ञ हैं ।” सेठने राजपुरोहितकी ओर देखकर कहा, “अति उत्तम ! ले लीजिए; परन्तु मुझे मेरे इस पुण्यका क्या मूल्य मिलेगा ?” राजपुरोहितने राजासे कहा, “राजन ! इन्हें इनकी रोटियोंके भारके समान उतने ही भारके हीरे-मोती तौलकर दे दीजिये ।” सेठकी सहमतिपर राजाने एक अनुमानित भारकी चार रोटियां मंगाईं, इन्हें तुलाके एक पलडेपर रखकर दूसरे पलडेपर हीरे-मोती आदि रत्न रख दिए; परन्तु यह क्या ! बहुतसे रत्नोंको रखनेपर भी रोटीवाला पलडा नहीं उठा । राजपुरोहितने अत्यधिक रत्न लानेका निर्देश दिया । पुनः रत्नोंकी अनेक थैलियां तुलापर रख दी गईं तथापि रोटीका पलडा ऊंचा नहीं उठा, तब दौडकर सेठजीने राजपुरोहितके चरण पकड लिए तथा भावविह्वल होकर कहा, “मुझे क्षमा कर दें, मेरे बन्द नेत्र खुल गए, अब मैं अपने पुण्यका विक्रय नहीं करूंगा ।” राजपुरोहितने सेठसे कहा, “धर्माचरणी व्यक्तिको प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी कभी विचलित नहीं होना चाहिए । विधिपूर्वक किए गए धनदान, स्वर्ण-आभूषणों, रत्नोंके दानका उतना लाभ नहीं जितना आपातकालमें दिए गए अल्प प्रमाणके दानका है । कुपात्रको दिया गया दान तामसी एवं मानप्रतिष्ठामें वृद्धि हेतु दिया गया दान राजसी है तथा इनका निश्चित परिणाम पतन ही है । सुपात्रको दिया गया दान, दाता तथा पात्र दोनों हेतु कल्याणकारी है ।” तत्पश्चात राजाने यथोचित सहयोग राशि देकर सेठको ससम्मान वहांसे विदा किया ।


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