साधनाके अवरोधक (भाग-९)


दूसरोंसे सेवा कराना
  जिस दिवससे साधक, साधनाके पथपर अग्रसर होता है, उसी क्षणसे उसें एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त ध्यानमें रखना चाहिए और वह है कि उसे अपने प्रारब्धके कर्म भोगते हुए संचित कर्मको अपनी साधनासे जलाना है तथा नूतन कर्म फल नहीं निर्माण करने हैं, तभी वह इसी जन्ममें जीवनमुक्त हो सकता है ।
   यदि साधक इस भावसे साधनारत रहता है तो उसके प्रारब्ध या संचितमें पापकी तीव्रता अधिक हो तो उसे कष्ट अधिक होता है, ऐसेमें उसे धैर्य व श्रद्धाके साथ साधनारत रहना चाहिए; क्योंकि उसने जीवनमुक्त होनेकी इच्छा स्वयं ही निर्धारित की है । नूतन पाठकोंके लिए बता दें, संचित कर्म अर्थात पिछले अनेक जन्मोंका एकत्रित कर्मफल, जिसे भोगे बिना या नष्ट किए बिना जीवनमुक्त होना (जन्म-मृत्युके चक्रसे छुटकारा पाना) सम्भव नहीं और प्रारब्ध कर्म अर्थात इस जन्ममें संचितके कुछ भागका कर्मफल, जिसे भोगने हेतु हम जन्म लेते हैं । अब जब प्रारब्ध और संचितके कर्मको नष्ट करने हेतु हम प्रयास कर रहे हैं तो इस बातका भी विशेष ध्यान रखना चाहिए कि अपने क्रियमाणसे नूतन कर्मफल निर्माण न हो । अब प्रत्येक दिवस हमसे इतने कर्म होते हैं, इसमें कौनसे कर्म प्रारब्ध अनुसार हैं और कौनसे क्रियमाण अनुसार ?, यह सामान्य बुद्धिसे समझना बहुत ही कठिन है, इस हेतु साधकको भक्तियोग अनुसार अपने प्रत्येक कर्मको करते हुए नामजप और प्रार्थना करना चाहिए एवं उसकेद्वारा किए जा रहे कर्मोंके कर्ताधर्ता ईश्वर हैं, यह भाव रखना चाहिए । इससे नूतन कर्मफल निर्माण होनेकी आशङ्का घटती जाती है एवं साधक एक सतर्क योद्धा समान साधना पथपर अग्रसर होता है; किन्तु मैंने अनेक बार देखा है कि षड्रिपुके वशमें आकर साधक अनेक बार अयोग्य कर्म करता है, इससे वह कर्मके बन्धनसे नहीं छूट पाता है एवं उससे नूतन कर्मफल निर्माण होने लगते हैं । मैंने देखा है कि अनेक बार साधकमें आलस्यकी वृत्ति होनेसे वे अपनेसे अल्पायुके साधकसे या जो उनसे स्नेह करते हैं या उनकी साधनाको देखकर उनका सम्मान करते हैं, उनसे वे सेवा कराने लगते हैं, ऐसे साधकोंके लिए एक विशेष बात आज बताना चाहूंगी कि एक महत्त्वपूर्ण तथ्यका ध्यान रखें कि ८०% आध्यात्मिक स्तरके नीचे हमसे जो भी कर्म होता है, उसे यदि आध्यात्मिक सिद्धान्तको ध्यानमें रखते हुए हम न करें तो हमारे कर्मसे नूतन कर्मफल निर्माण होता है, जिसे इस जन्ममें या अगले जन्ममें पुनः भोगना होता है । ध्यान रहे ! मात्र सन्त या गुरुकी सेवा करनेसे कर्मफल निर्माण नहीं होता है, शेष सभी सम्बन्धोंसे आसक्त होकर यदि हम सेवा करते हैं या कराते हैं तो उसका कर्मफल निर्माण होता ही है; अतः भावनाप्रधान होकर सेवा करने या करानेसे अर्थात दोनों ही वृत्तिसे हम कर्मके चक्रमें फंस सकते हैं; इसलिए सेवा करते समय, ‘वे ईश्वरके ही रूप हैं’, इसी भावसे सेवा करनी चाहिए एवं दूसरोंसे सेवा कराना, जबतक शरीर साथ दे, तबतक उसे टालना चाहिए । जैसे मैंने आश्रममें देखा है कि कुछ साधक अपने वस्त्र या अपनी जूठी थालियां किसी अन्य साधकसे सहज ही धुलवाते हैं; किन्तु ऐसा भी नहीं करवाना चाहिए एवं विषम परिस्थितिमें ही ऐसा कराना चाहिए । यह तो मैंने एक उदाहरण दिया है; किन्तु मैंने देखा है कि भावनाप्रधान साधक ऐसी सेवा करते हैं एवं आलसी साधक ऐसी सेवा कराते हैं । यदि आपमें भी यह वृत्ति है तो यह साधनाकी दृष्टिसे एक बडा दुर्गुण है, इसे त्वरित दूर करें ! साधक एक स्वयंसेवक है एवं उसका जीवन निष्काम एवं धर्म व राष्ट्रकी सेवा हेतु समर्पित है, इसका ध्यान रखना चाहिए ।


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