स्तरनानुसार साधना – एक सिद्ध सत्य शाश्वत सिद्धांत


मेरे कुछ मित्र आध्यात्मिक स्तरको प्रतिशतकी भाषामें व्यक्त करनेपर सीधे उसे अवस्वीकार कर तीखी प्रतिक्रिया देते हैं; परंतु ईश्वरीय कृपासे मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ , जब मैंने पहली बार अपने श्रीगुरुको अध्यात्मशास्त्रको प्रतिशतकी भाषामें सीखाते हुए पाया तो मैंने उसका आधार जानना चाहा और इस विषयको बुद्धिसे समझनेके पश्चात उसके सूक्ष्म पक्षको जानने हेतु अपनी सूक्ष्म इंद्रियोंसे, जो ईश्वरीय कृपासे पहलेसे ही जागृत थीं, उन्हें, साधना कर और विकसित करने लगी| मेरा ऐसा मानना था कि यह अध्यात्मशास्त्रको आधुनिक विज्ञानकी परिभाषामें समझानेका एक उत्तम मध्याम है; अतः मुझ इसे सीखना है और इसे सीखने हेतु जो भी प्रयास करने चाहिए वह अवश्य करूंगी , ऐसा सकारात्मक दृष्टिकोण रखनेपर मैंने पाया कि मैंने सूक्ष्म जगतकी अनेक बातें सहज ही आत्मसात होती चली गयीं और धर्मप्रसारकी सेवा करते समय जिज्ञासुओं और साधकोंका चुनाव करना भी अत्यधिक सरल हो गया और स्तर जान लेनेपर उन्हें सेवा देना और वह भी उनके स्तर अनुसार देना भी सरल हो गया , फलस्वरूप मेरी सेवामें परिणामकारकता भी बढ गयी |
एक जिज्ञासु या साधकका दृष्टिकोण होना चाहिए कि एक आत्मसाक्षात्कारी संतद्वारा बताए गए यह सिद्धांत है तो निश्चित ही उसमें तथ्य होगा , तो हम उसे सीखेंगे , उसके विपरीत सीधे ही उस तथ्यको नकार देना अहंका लक्षण है  | वैदिक सनातन धर्ममें यह सिद्धान्त आदिकालसे ही था तभी तो गुरु , सद्गुरु , ऋषि , राजर्षि, महर्षि जैसे शब्द हमारे धर्मग्रंथोंका अविभाज्य अंग था |
स्तरानुसार साधनाके विषयमें मैं अपने ऊपर किए एक प्रयोग और उसका परिणाम आपके साथ साझा करना चाहुंगी |

वर्ष १९९७ दिसम्बरमें परम पूज्य गुरुदेवद्वारा अध्यात्मशास्त्र विषयको प्रतिशतमें बताया जाना मुझे अत्यधिक रोचक लगा | मैंने स्तरानुसार साधना, इस विषयका अत्यंत बारीकीसे अभ्यास कर अपना स्तर निकाला और मुझे लगा मेरा स्तर ५० प्रतिशत होगा क्योंकि इस स्तरपर साधनाको प्राधानता देना, सत्संगमें नियमित आनंदपूर्वक जाना और चार-पांच घंटे निस्वार्थ भावसे धर्म हेतु सेवा करना, यह सब मुझसे हो रहा था | एक सत्संगमें श्रीगुरुने बताया था कि हमारा जितना आध्यात्मिक स्तर होता है उसके अगले स्तरकी साधना करनेसे हमारी आध्यात्मिक प्रगति अति शीघ्र होती है | ४०% स्तर वाले ने बुद्धि से ५०% स्तरवालेकी साधना करनेका प्रयास किया तो प्रगति शीघ्र होगी | उसी प्रकार ५०% स्तरके साधकने ६०% स्तरकी साधना की तो वह साधनाके अगले चरणमें शीघ्र चला जाता है | मैंने इस सिद्धान्तका प्रयोग करना चाहा | ६०% स्तरके साधकसे सहज ही गुरु अथवा गुरुकार्य हेतु धनका त्याग होता है ऐसा मैंने पढ़ा | उसी दिनसे महीनेके पहले दिन २०% के लगभग पैसे निकालकर, उसकेद्वारा संस्थाके ग्रंथ खरीद बिहारमें अपने माता-पिताके पास धर्म-प्रसार हेतु भेजने लगी, साथ ही प्रसार कार्यमें भी जो भी सह-साधक आर्थिक रूपसे प्रसारमें आने-जाने हेतु धन व्यय नहीं कर सकते थे, विशेषकर विद्यार्थी एवं गृहिनियां उनकी भी सहयता करने लगी | यह क्रम मई २००८ तक यह क्रम चलता रहा, इस दौरान अनेक अड़चनें आयीं; परंतु मैंने अपना मासिक धनके त्यागका क्रम जारी रखा | जूनमें एक दिन श्रीगुरु द्वारा लिखे ‘शिष्य’ ग्रंथ पढ़ रही थी जिसमें लिखा था कि जब तन, मन और धनका त्याग 55% हो जाता है तो सद्गुरु साधकको शिष्यके रूपमें उसे अपना लेते हैं | बुद्धिवादी तो थी ही सोचा, इस गुरुवचनका पालन कर देखते क्या सचमें ५५% तन, मन और धनका त्याग करनेसे वे हमें शिष्यके रूपमें हमें स्वीकार कर लेते हैं !!! मैंने अपनी सारिणी बनाई तो लगा नामजप तो अखंड करनेका प्रयास होता ही है, शरीरसे भी कार्यालयके पश्चात गृह-कार्य समाप्त कर, धर्म-प्रसारकी सेवा हेतु प्रतिदिन तीन-चार घंटे दे रही थी, रविवारका पूरा समय सेवामें ही जाता था, अतः अब मात्र धनका त्याग ५५% करना रह गया था | मैंने अगले दिन उत्साहपूर्वक अपने केंद्रसेवकको अपने ५५% मासिक आयके अंशका हिसाब लगा कह दिया कि जुलाईमें होनेवाली गुरुपूर्णिमामें मैं ———- रुपए अर्पण करूंगी | मैंने यह सब नहीं बताए कि मैंने ५५% धनका त्याग करनेका निश्चय किया है, मेरी एक आदत है मैं अपनी आंतरिक प्रक्रिया सिवाय ईश्वरके और किसी से कभी साझान नहीं करती हूँ, आज आपको यह सब ईश्वरका आदेश हुआ है इसलिए बता रही हूं | राशि थोडी अधिक थी वे मुझे तनिक आश्चर्य और प्रसन्न हो कहने लगी, “तुम्हारी जैसे इच्छा हो वह करो मात्र तुम्हें घर खर्चमें अडचन नहीं आणि चाहिए” | मैं उस समय साझा (पार्टनर्शिप) में कंसल्टेंसी चलाती थी अतः जो भी आय होता था उसे ५५% मैंने अपने केंद्रसेवकको बताया था | यह बात २० जून की थी | अभी एक ही वर्ष हुए थे हमे अपनी व्यवसायको आरंभ किए परंतु जिस मित्रके साथ हमने यह व्यवसाय आरंभ की थी वह भी संतोषी और साधक प्रवृत्तिका था अतः हम दोनोंके बीच पैसेको लेकर कभी समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी | दो कंपनियोंसे हमारे पास कुछ बडी राशि आनेवाली थी; परन्तु जिस दिन हमने अपने साधकको अर्पण करनेवाली बात बताई उसके अगल दिन पता चला कि जिस कंपनीसे अगले महीने सबसे अधिक पैसे आनेवाले थे उस कंपनीमें आर्थिक समस्या आ गयी है हमें बताया गया था कि अब वे हमे दो महीनेके पश्चात हमें पैसे देंगी | मैं मन ही मन मुस्कुराने लगी कि परीक्षा आरंभ हो गयी | तेरह जुलाईको गुरुपूर्णिमा थी | वैसे हमारे श्रीगुरुके कोई साधक पैसे कभी मांगते नहीं है और विशेषकर मेरे केन्द्रसेवक तो कभी भी नहीं | परन्तु गुरु लीला देखें हमारी केंद्रसेवकने कहा “आपने अर्पणके लिए कहा था कब देंगी “ ? कुछ क्षणोंके लिए लगा जैसे उनके मुखसे मेरे श्रीगुरु ही कह रहे हों, उन्हें क्या बताऊं कि जिस कंपनी के भरोसे मैंने उन्हें अर्पणकी उतनी बड़ी राशि कही थी उनसे पैसे इस महीने आनेवाले ही नहीं है | यह बात ४ जुलाईकी है, मजे कि बात है कि वे साधक जो कभी भी ऐसा नहीं कह सकती थीं पुनः ८ जुलाई को मुझसे पैसेके बारेमें पूछ रही थीं पता नहीं जब भी वे पूछतीं मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे श्रीगुरु ही कह रहे ५५% चाहिए ही मैंने उनसे कह दिया कल देती हूं | (मुझे हमारे श्रीगुरुद्वारा लिखित ग्रंथ में उनके और उनके गुरुके बीचका प्रसंग इस संदंर्भमें ध्यानमें आ जाता था कि कैसे बाबा अर्थात परम पूज्य भक्तराज महाराज परम पूज्य गुरुदेवसे उनकी मुंबई जाने हेतु जो पैसे पेट्रोल हेतु रखे थे वे भी मांग लिए और जब श्रीगुरुने सब अर्पण कर दिये तो बाबाने स्वयं ही उन्हें पैसे दिये ) अगले दिन कार्यालय गयी तो मेरा बिज़नस पार्टनर अत्यधिक प्रसन्न था, मैंने कहा, “क्या बात है, सुबह-सुबह आप बड़े प्रसन्न हैं” उन्होंने कहा, “एक अचरजकी बात हो गयी है, एक कंपनी जिसके साथ हमने छह महीने पहले कुछ कार्य किया था और वह दिवालिया हो गयी थी उसने चेक भेजा है और मैं चाहता हूं कि इसमे हम आधा-आधा नहीं करेंगे यह राशि आप ले लो अगली राशि जब आएगी तब मैं ले लूँगा | हमारा बिज़नस-पार्टनर मेरे आध्यात्मिक होनेके कारण मेरे अत्यधिक आदर करते थे | मैंने चेक की राशि देखी तो मुझे जितने पैसे अर्पण करने थे उससे थोड़े अधिक थे | मैं, संध्या अर्पणकी राशि लेकर अपने केंद्रसेवकके पास अर्पण करने दी | शेष राशि, ३०० रुपए थे अर्थात १०००० रुपए जो मेरे मासिक खर्च थे वह मेरे पास नहीं था | और एक मजेदार बात बताती हूं जब मैं केंद्रसेवकके पास अर्पणकी राशि देने गयी तो पुनः मुझे बोध हो रहा थी कि उनके स्थानपर मेरे श्रीगुरु हैं और वे मुझसे पूछ रही थीं कि अधिक पैसे हैं आपको महीनेके खर्चमें अडचन तो नहीं आएगी परंतु मैं तो अपने गुरुके शास्त्रको अपने उपर सिद्ध करनेको आतुर थी अतः मैंने कहा “नहीं सब गुरुकृपासे पूर्ण हो जाएगा |’’ मैंने दिसम्बर १९९९ से पैसे भविष्यके लिए बचाकर रखना छोड कर दिया था क्योंकि मैंने श्रीगुरुके लिखे कुछ सुवचनोंको ग्रन्थोंको पढ़ा था जैसे “ हम क्या अर्पण करते हैं उससे अधिक महत्व होता है हम अपने लिया क्या बचा कर रखते हैं (अतः महीनेके अंतमें घर खर्चसे जो बचता था उसे अर्पण कर देती थी ) !! और साधकने वर्तमान में रहने चाहिए अतः भविष्यका विचार करना भी छोड़ दिया !! साधककी श्रद्धा ईश्वरपर जितनी अधिक पैसेपर उतनी कम हो जाती है अर्थात खरा साधक ईश्वरके आधारसे अधिक महत्व देता है और सांसारिक लोग पैसेके आधारको (मुझे सांसारिक नहीं साधक बनाना था)”!!!
८ जुलाई था और हाथमें मात्र ३०० रुपए थे, जो मुंबई जैसे महानगरीमें दो दिनमें खर्च हो जाते थे, तो महीने भरका खर्च कहांसे आएंगे एक क्षणके लिए यह विचार आया; परंतु तभी मैंने सोचा कि भविष्यका विचार करनेके स्थानपर वर्तमानमें रहना चाहिए और अध्यात्म प्रायोगिक शास्त्र है अतः इस महीने प्रयोग ही करेंगे | ११ जुलाईको एक और बड़ी राशि पुनः ऐसी कंपनीसे आ गयी जिससे बारे में हमने सोचना छोड दिया था, मेरे बिज़नस पार्टनेर ने कहा “ इस राशिका आधा तुम ले लो और आधा मैं ले लुंगा | मैंने गुरुलीला समझ सब सहजतासे स्वीकार कर ली और अब उस महीनेके खर्चकी चिंतासे भी मुक्त हो गयी ! १३ जुलाईको गुरुपूर्णिमा आनंदपूर्वक बीता | कुछ घटनाक्रम ऐसे घटित हुए कि २१ जुलाईको मैं पूर्णकालिक साधक बन २३ जुलाईको फ़रीदाबाद आ गयी !!!! मैं समझ गयी हमारे श्रीगुरुद्वारा लिखे प्रत्येक वाक्य ब्रह्मवाक्य है, सिद्ध है, सनातन है !! तभी तो कहते हैं ‘मंत्र मूलं गुरूर वाक्यं मोक्ष मूलं गुरुकृपा’ !!
जिन साधकने अर्थात मेरे केंद्रसेवकने मुझे अर्पणकी राशिके लिए दो बार पूछा उनके बारेमें एक छोटा-सा प्रसंग बताना चाहूंगी | अक्टूबर १९९७ में मुझे एक ऐसी संधि मिली थी जिसमें मेरा जितना आय था उसका दुगुना मुझे मिल सकता था | हमारी गुरुदेवकी संस्थाका विस्तार हो रहा था और इसलिए धनकी आवश्यकता थी और हम साधक इस हेतु भिक्षाटन करते थे | मैंने सोचा कि मुझे तो इतने पैसे चाहिए नहीं अतः ५०% धन गुरुकार्यके लिए अर्पण कर दूंगी; परंतु मैंने एक बार अपने केन्द्रसेवकसे जो मेरी सहेली समान ही थी, उनसे भी पूछना योग्य समझा | जब मैंने उन्हें सारी बातें बताई और यह भी कहा कि वर्षमें छह लाख रुपए गुरुकार्यके लिए अर्पण कर पाउंगी तब उन्होंने जो मुझे दृष्टिकोण दिया वह सुनकर मेरी उनके प्रति और हमारे श्रीगुरुके पति श्रद्धा और बढ गयी | उन्होंने बडे प्रेमसे कहा, “यह तो सुंदर विचार है कि आप गुरुकार्यमें धन अर्पण करना चाहती हैं परंतु क्या ऐसा करनेपर आपकी व्यष्टि और समष्टि साधना तो प्रभावित नहीं होगी न” | मैंने कहा, “व्यष्टि साधनामें तो कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा परन्तु समष्टि साधना अर्थात धर्मप्रसरकी सेवामें प्रतिदिन समय नहीं दे पाउंगी मात्र रविवारको आ पाऊँगी क्योंकि वह एक कोचिंगका केंद्र होगा अतः मेरे कार्यका समय दो बजे से रात्रि नौ बजे तकका होगा | उन्होंने कहा, “देखो तनुजा, यह सच है कि संस्थाको प्रसार-कार्य बढाने हेतु धन चाहिए; परंतु हमारे गुरु तो परमेश्वर हैं, वे एक बार विचार करेंगे तो कोई न कोई आकार छह लाख रुपए दे जाएगा, परंतु तुम्हारी साधना रुक जाएगी | अतः मेरे विचारसे तुम साधना अर्थात धर्मप्रसारकी सेवाको अधिक महत्त्व दो | धन अर्पण करनेकी सेवा तो कोई भी कर सकता है; परंतु लोगोंको धर्मके बारे जागृति निर्माण करनेकी तुझमें जो विशेष क्षमता है, वह सबमें नहीं होती अतः तुम इसपर ही अपना ध्यान दो” | मैं उनकी बात सुन उस गुरुके प्रति कृतज्ञ हो गयी जिन्होंने इतने अच्छे साधक तैयार किए थे अन्यथा मुंबई जैसी मायानगरीमें कोई छह लाख रुपए देना चाहे (१९९७ में उतने रुपएका महत्त्व था ) और कोई यह कह कर अस्वीकार करे कि तुम साधना करो और धर्म-जागृति करो और आनंद में रहो, धन अर्पणके बारे न सोचो, यह एक विलक्षण बात थी और इस तथ्यने सनातन संस्थाके प्रति मेरी श्रद्धाको कई गुना बढा दिया | -तनुजा ठाकुर



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