आपातकालमें देवताको ऐसे करें प्रसन्न (भाग-१८)


     स्थान देवताके समान ग्राम देवताका भी प्रसन्न रहना समाजके समष्टि सुखी जीवन हेतु आवश्यक होता है । धर्मप्रसारके मध्य कुछ समय मैं ग्रामीण क्षेत्रोंमें भी रही हूं । वहां मैंने देखा कि वार्षिक उत्सव ग्राम देवताको प्रसन्न करनेके लिए होता है, जिसमें प्रत्येक ग्रामीण अपनी-अपनी भूमिका निष्काम भावसे निभाकर ग्राम देवताको प्रसन्न करता है । महानगरोंमें या नगरोंमें विकासके नामपर इन मन्दिरोंको या तो तोड दिया गया या वहांके मूल निवासियोंको वहांसे विस्थापित कर दिया गया या वहांके मूल निवासी नगरीय चकाचौंधमें अपनी परम्पराको भूल गए ।  इससे ग्राम देवता भी आज महानगरों एवं उपनगरोंमें कुपित हैं ।      मैं आपको ऐसे ही यह सब नहीं बता रही हूं, मैंने इन सब तथ्योंका प्रयोग करके देखा है; किन्तु स्वभावतः बुद्धिवादी हूं, नहीं-नहीं आजके विवेकशून्य बुद्धिवादी जैसी नहीं हूं । किन्तु शास्त्रको मानकर उसकी अनुभूति लेनेका प्रयास किया है । इस सन्दर्भमें अपनी अनुभूति बताती हूं । हमने उपासनाका कार्य दिसंबर २०१० से झारखण्डके हमारे पिताजीके पैतृक गांवसे आरम्भ किया । कार्य आरम्भ होनेसे पूर्व ही मुझे अत्यधिक कष्ट होने लगा था तो इससे मुझे ज्ञात हो गया था कि उपासनाके माध्यमसे विश्वव्यापी जनजागरण होगा; अतः हमारे श्रीगुरुद्वारा बताए गए शास्त्रोंका मैंने पालन आरम्भ कर दिया । दिसंबरकी कंपकंपाती ठण्डमें हमने २६ दिसंबर २०१० को, ईश्वर आज्ञाके अनुसार उपासनाकी नींव, हमारे बाबागुरुके श्रीगुरु परम पूज्य अनन्तानन्द साईश महाराजकी पुण्यतिथिपर रखी । यह आपको क्यों बता रही हूं; क्योंकि शुभ कार्यमें शुभ मुहूर्तका होना भी अति आवश्यक होता है एवं एक गुरुभक्तके लिए गुरु परम्परामें हुए सन्तकी पुण्यतिथिसे अधिक और शुभ दिन क्या हो सकता है ? सन्तोंकी पुण्यतिथिकी विशेषता होती है कि उस दिवस उनके कार्य हेतु उनका निर्गुण तत्त्व कार्यरत रहता है इसलिए पौष माहमें कोई शुभ दिन नहीं होनेसे हमने इस तिथिका चुनाव किया या सच पूछें तो ईश्वरकी इच्छा अनुसार ऐसा किया । स्थापना दिवसके कार्यक्रमसे तीन दिवस पूर्व हमने वहांकी स्थान देवी एवं ग्राम देवताके पास जाकर उन्हें निमन्त्रण दिया एवं उनकी यथोचित पूजा कर उनका सर्वप्रथम आशीर्वाद लिया । और यह मैं २०१७ तक अर्थात जबतक मैंने वहां उपासनाकी स्थापना दिवसकी वर्षगांठ मनाई, तबतक यह करती रही । और इस कार्यक्रममें देश-विदेशके उपासनाके साधक सम्मिलित हुए सभीके यह अनुभव किया कि ‘पूष’की कडकती ठण्डमें कार्यक्रमसे एक दिवस पूर्व एवं पश्चात भी प्रचण्ड ठण्ड एवं कुहासा रहता था; किन्तु कार्यक्रमवाले दिवस इतनी अच्छी धूप होती थी कि रात्रिके ग्यारह बजेतक कोई भी साधक या कार्यकर्ताके शरीरपर ऊनी वस्त्र नहीं होता था । यह होती है देवताके प्रसन्न होनेकी अनुभूति ! एक वर्ष हो तो आप उसे संयोग कह सकते हैं, यदि वही अनुभूति आठ वर्ष हो तो आप क्या कहेंगे ? अतः सुखी समष्टि जीवन एवं समष्टि कार्य निर्विघ्न करने हेतु भी इनका प्रसन्न होना अति आवश्यक है !

——-



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution