आपातकालमें देवताको ऐसे करें प्रसन्न ! (भाग-५)


जूठन सम्बन्धी आचारधर्मका करें पालन
       अन्नपूर्णा कक्षमें एक और बात जो शुचिताके सम्बन्धमें सदैव ध्यान रखना चाहिए, वह जूठनके विषयमें है । आजकल धर्माचरण न सिखानेके कारण या आलस्यके कारण अथवा भोज्यपदार्थ व्यर्थ न हो या ‘पवित्रता’ शब्द ज्ञात न होनेके कारण अनेक लोग जूठनसे सम्बन्धित बातोंका अंशमात्र भी ध्यान नहीं रखते हैं । यह भी एक मुख्य कारण है कि जो भी व्यक्ति कर्मकाण्ड अनुसार साधना करता है, जैसे विप्र, संन्यासी एवं अनेक सन्त, वे आज गृहस्थोंके घर भोजन नहीं करना चाहते हैं । हमारे आश्रममें भी जो भी आते हैं, उनमेंसे ९५% लोगोंमें भी आचारधर्मके प्रति अनभिज्ञता देखी है ।
मैं आपको कुछ उदाहरण देती हूं । २०१४ में मैं इटलीके एक हिन्दू घरमें रुकी थी । एक दिवस उन्होंने ‘केक’ बनाया था । उनके पुत्रने उस ‘केक’के एक टुकडेको थालीसे उठाकर उसके कुछ भाग खा लिए और पुनः वह टुकडा उसी भरी हुई ‘केक’की थालीमें रख दिया और उस स्त्रीने उस थालीको प्रशीतक (फ्रिजमें) रख दिया । मैंने देखते ही उन्हें टोका तो उन्होंने कहा, “इसमें क्या हुआ हमलोग ही तो हैं खा लेंगे अन्यथा वह पूरा ‘केक’ व्यर्थ हो जाएगा ।“ ध्यान रखें ! यदि आप भी ऐसा करते हैं तो आपका प्रशीतक भी एक प्रकारका भण्डारगृह है, उसके अशुद्ध होनेसे उसमें रखी सम्पूर्ण सामग्री अशुद्ध एवं अपवित्र हो जाती है और उसमें रखी किसी भी वस्तुका न तो आप नैवद्य लगा सकते हैं, न ही कर्मकाण्डी ब्राह्मणको खिला ही सकते हैं न किसी सन्तको !
      उसी प्रकार पूर्वकालमें संयुक्त कुटुम्ब व्यवस्था हुआ करती थी । उसमें घरकी दादी, मां या बडी बहन सभीको भोजन परोसकर खिलाती थीं । आजकल एकल परिवार व्यवस्था (न्युक्लीअर फॅमिली) होनेके कारण सब एक साथ बैठकर ‘डाइनिंग टेबल’पर खाते हैं । अनेक बार मैंने लोगोंको दोनों हाथसे रोटी तोडते देखा है उसके पश्चात उसी हाथसे दाल या शाक लेकर उसे अपनी थालीमें परोसते हैं एवं जो भोजन बच जाता है, उसे पुनः प्रशीतकमें रख देते हैं । और साथ ही जिस हाथसे खाते हैं उसे एक कागदसे पोछते रहते हैं और कोई अतिथि या सन्त आए हों तो उन्हें भी उसी जूठे हाथसे परोसते रहते हैं । यह मैंने देहली, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेशमें प्रायः सभी घरोंमें देखा है । कुछ लोग तो यदि आप उनके साथ खा रहे होते हैं और आपकी थालीमें रोटी समाप्त हो गई हो तो वे उसे अपनी थालीसे उठाकर दे देते हैं अर्थात जूठनसे सम्बन्धित आचारधर्मका आज अनेक हिन्दू न के समान पालन करते हैं और उसके पश्चात मुझसे कहते हैं कि पितृपक्षके भोजनमें ब्राह्मण भोजन करने ही नहीं आते हैं, थाली भेजो तो उसे कुत्तेको खिला देते हैं या फेंक देते हैं । अब ऐसा भोजन तो कोई भी कर्मकाण्डी पण्डित किसी पशुको ही खिलाएगा न क्योंकि ऐसा अशुद्ध भोजन न देवता ग्रहण करेंगे और न ही आपके पूर्वज तो विप्र कैसे ग्रहण कर सकते हैं ! उन्हें भी  अपना धर्म तो बचाना है !
       जूठनसे सम्बन्धित एक और बात देखी है मैंने । आजकल जूठन धोने हेतु अन्नपूर्णा कक्षमें एक ‘बेसिन’ होता है । जूठनकी थालियां उसमें रखी होती हैं और अनेक स्त्रियां उसीपर चावल या दाल पकाने हेतु जल लेनेके लिए एक पात्र रख देती हैं और उसे अंगीठीपर चढा देती हैं । मैंने १२ वर्ष भारत व विदेशमें अनेक हिन्दुओंके घरोंमें रहकर धर्मप्रसार किया है और यह सब अनर्थ होते देखा है और स्त्रियोंको इसके विषयमें बताया है; किन्तु कुसंस्कारका प्रभाव उनपर इतना अधिक होता है कि उन्हें शुचिता और अशुचिताके मध्य भेद समझमें ही नहीं आता है ।
   वैसे ही जब वे अपने अन्नपूर्णा कक्षमें ‘बेसिन’में जूठे पात्र धो रही होती हैं तो उसके छींटें भी सभी पके हुए भोज्यपदार्थमें पड रहे होते हैं; क्योंकि महानगरोंमें तो अन्नपूर्णा कक्ष छोटे होते हैं । यह उन्हें सामान्यसा ज्ञान नहीं होता है कि हम पका भोजन, ‘बेसिन’से थोडी दूरीपर रख दें ! और जो ‘कामवाली’ सेविकाएं आती हैं, वे तो सब ‘पवित्रं-पवित्रं’ करके चली जाती हैं; क्योंकि स्त्रियां बिचारी अपने दो बच्चों और पतिका भोजन सारे आधुनिक संसाधनोंके माध्यमसे बनाकर इतनी थक चुकी होती हैं कि वे यदि तीन चार घण्टे ‘टीवी’ या ‘मोबाइल’पर न दें तो उन्हें अवसाद ही हो जाता है ।
        जब गृहलक्ष्मीकी ही ऐसी वृत्ति हो तो अन्नपूर्णामाता घरमें रुके तो रुके कैसे ? इसलिए स्त्रियो, शुचिता हमारे हिन्दू धर्मके सुसंस्कारोंका मूलबिन्दु है उसका पालन करनेपर ही आपके घरमें सात्त्विकता या देवत्व निर्माण होगा, यह ध्यान रखें और यह गुण स्वयं भी आत्मसात करें व अपनी सन्तानोंमें भी अंकित करें !
      आज घर-घरमें चर्मरोग है, इसके पीछे मूल कारण अनिष्ट शक्तियां ही होती हैं, अब जब भोजन ही अशुद्ध एवं अपवित्र हो तो चर्मरोग होना स्वाभाविक है । आपको बता दें आज अधिकांश लोगोंको असाध्य चर्मरोग होता है । हमारे आश्रममें तो लोग आते ही रहते हैं । कुछ लोगोंके तो शरीर ऐसे सड चुके होते हैं कि उन्हें देखकर ही मन व्याकुल हो जाता है और मैंने पाया है कि ऐसे लोग बहुत ही अस्वच्छ एवं अपवित्र रहते हैं तो स्वाभाविक है कि घरके सदस्योंको अपवित्र भोजन बनाकर वे खिलाती हैं और एक-एककर सभीको चर्मरोग हो जाते हैं । वैसे ही मानसिक रोग भी अपवित्र रहनेके कारण होते हैं और उसका भी प्रमाण भारतमें द्रुत गतिसे बढ रहा है; अतः आज देवत्व जाग्रत करनेकी विधि जाननेकी सभीको आवश्यकता है !


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