कुछ साधक पचास प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरपर होनेपर भी कर्मकांडकी साधना करते हैं और वह भी शास्रोक्त पद्धतिसे नहीं करते हैं और न ही उसे करते समय उनमें भाव होता है ! ऐसेमें उन्हें, उस साधनाका अपेक्षित लाभ नहीं होता | इस सन्दर्भमें एक उदहारण देती हूं, दिल्लीके एक पत्रकारसे मेरा परिचय हुआ, उनका आध्यात्मिक स्तर पचास प्रतिशत है, वे प्रखर हिन्दुत्ववादी हैं, जब उन्होंने ‘उपासना’से जुडकर अपनी आध्यात्मिक स्तर अनुरूप साधना आरम्भ की, उन्हें अनेक अनुभूतियां होने लगीं, वे सक्रिय रूपसे सेवा भी करने लगे; परन्तु उपासनासे जुडनेसे पहले वे कर्मकाण्ड अनुसार साधना करते थे | वे मुझसे पूछने लगे कि इससे पूर्व उन्हें इस प्रकारकी अनुभूतियां क्यों नहीं होती थीं, तो मैंने उन्हें बताया कि वे अपने आध्यात्मिक स्तरके अनुरूप अभी तक योग्य साधना नहीं कर रहे थे इसलिए आपको आपके स्तर अनुरूप अनुभूतियां नहीं हो रही थीं, तो उन्होंने मेरी बात तो मान ली; परन्तु कर्मकांडकी साधनाका संस्कार इतना तीव्र था कि वे उसे नहीं छोड पाए और कुछ समय पश्चात्, वे पुनः कर्मकांड अंतर्गत पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार करना, दरिद्रों या अनाथाश्रमको अन्न देना जैसी कृति करने लगे | उन्हें अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट तो था ही; अतः योग्य साधना समझ लेनेपर और अनुभूतियां होनेपर भी अगले चरणमें प्रवेश करने हेतु उनके प्रयास अल्प होने लगे और उनकी साधना छूट गयी; अतः जब योग्य साधना ज्ञात हो जाए तो बुद्धिसे दृढ निश्चय कर, अगले चरणमें जानेका प्रयास करना चाहिए | ध्यान रखें, प्रथम कक्षाकी पूर्ण पढाई पूर्ण होनेपर हमें प्रथम कक्षाकी पुस्तकोंको छोडकर द्वितीय कक्षाकी पुस्तकोंको पढना होता है, यदि प्रथम कक्षाकी पुस्तकें नहीं छोड पायेंगे तो द्वितीय कक्षामें प्रवेश होनेपर भी आगेकी शिक्षा प्राप्त करना संभव नहीं हो पायेगा ! कर्मकांडकी साधना तीससे चालीस प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरवाले साधकोंके लिए योग्य होती है, उससे आगेके चरणमें जानेके लिए नामजप, त्याग और सत्सेवा करना परम आवश्यक होता है, तभी हमें उत्तरोत्तर आध्यात्मिक चरणोंकी अनुभूतियां होती हैं ! –तनुजा ठाकुर(१७.३.२०१३)