स्वयं या पूर्वजोंद्वारा अधर्मसे अर्जित धन भी आर्थिक संकटका कारण बनता है ।
आजकल अनेक लोग येन-केन प्रकारेण धनका संचय करते हैं । उन्हें ऐसा लगता है कि ऐसा करनेसे वे अपनी भावी पीढीके लिए सुख-शान्तिकी व्यवस्था कर रहे हैं; किन्तु ऐसा है नहीं । ऐसे व्यक्ति अपने लिए पापकर्म निर्माण कर अपना इस लोकमें एवं परलोकमें अहित कर रहे होते हैं तथा अधर्मसे संचित धन अस्थाई होता है, इसे उनके वंशजोंको भी भविष्यमें आर्थिक संकट होता है । अधर्मसे प्राप्त सुख क्षणिक होता है एवं वह क्लेशोंको आमन्त्रित करता है । महाभारतका यह श्लोक इस तथ्यकी पुष्टि करता है –
परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च ।
आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै ।।
अर्थात दूसरोंको दु:ख देकर, धर्मका उल्लंघन कर या स्वयंका अपमान सहकर मिले हुए धनसे सुख नहीं प्राप्त होता है । अतः ‘धर्मेण अर्थ:’ अर्थात धनकी प्राप्ति धर्म अधिष्ठित होनी चाहिए एवं आवश्यकतासे अधिक धन समाज हित हेतु अर्पण करना चाहिए तो ही वह कल्याणकारी होता है अन्यथा वह भविष्यमें विपत्तियोंको आमन्त्रित करता है ।
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