योग और आयुर्वेदको लेकर नूतन अभियान आरम्भ करने जा रहे स्वामी रामदेव विश्वभरमें प्रसारित होगा योग व आयुर्वेद !


दिसम्बर १७, २०१८

स्वामी रामदेवकी ‘पतंजलि योगपीठ’ योग और प्राणायामके साथ अब विश्वभरसे अनुसंधानके क्षेत्रमें भी जुड रही है । भारतके अतिरिक्त विश्वमें फैली जडी-बूटियोंको संग्रहीत करनेके लिए विश्वके अनेक देशोंके साथ ‘एमओयू’ सन्धि की जाएंगी । विश्वकी प्राच्य विद्याओंका भी भारतकी विद्याओंके साथ समन्वय स्थापित किया जाएगा !

पतंजलि योगपीठके महामन्त्री आचार्य बालकृष्णने बताया कि भारतके प्रयासोंसे योगको अन्तर्राष्ट्रीय स्थान मिल जानेके पश्चात समूचे विश्वमें योगके प्रति आकर्षण बढा है । साथ ही भारतीय आयुर्वेदकी मांग भी बढती जा रही है ।

पश्चिमी देशोंके साथ-साथ पूर्वके देशोंने भी आयुर्वेदकी जानकारी प्राप्त की है । इसके अतिरिक्त कला, संस्कृति, परम्परा, शिक्षा, प्राच्य विद्या आदिका समन्वित पाठ्यक्रम तैयार करनेपर बल दिया गया है । आचार्यने बताया कि पहले ही विश्वके अनेक विश्वविद्यालयोंमें पतंजलिकी ओरसे तैयार योग पाठ्यक्रम पढाए जा रहे हैं ।
आयुर्वेदके महत्वपूर्ण बिन्दुओंको भी सम्मिलित किया गया है । हाल हीमें चीनने योगमें भारी रुचि ली है । उसके साथ उन सभी देशोंमें भी योग और आयुर्वेदके प्रति जागरूकता उत्पन्न हुई है, जो कभी साम्यवादसे (कम्युनिज्मसे) जुडे हुए थे । औषधियां केवल भारतमें ही नहीं होतीं, बल्कि समूचे विश्वमें पाई जाती हैं । विशेष बात यह है कि भारत ऐसा एकमात्र ऐसा देश है जिसने आयुर्वेदपर सबसे प्रथम काम किया और जानकारी प्राप्त की ।

आचार्य बालकृष्णने बताया कि योग और आयुर्वेदके साथ अनुसंधानको जोडकर अनेक विधाओंका अन्वेषण किया जा रहा है । इन दोनोंके साथ पहले अनुसंधान नहीं जुडा हुआ था; परिणामस्वरूप योग और आयुर्वेदके प्राचीन मूल्य ही चले आ रहे थे । स्वामी रामदेवके साथ मिलकर उन्होंने योगके चिकित्सिय परीक्षणके माध्यमसे योगका विश्वमें प्रचार किया । उसी प्रकार पतंजलिमें स्थापित विश्वस्तरीय अनुसंधान केन्द्रमें जडी-बूटियोंपर व्यापक शोध किया जा रहा है । शोधके इस कार्यका अवलोकन अनेक देशोंके वैज्ञानिकोंने यहां आकर किया । उन सभीने आयुर्वेदका लोहा माना ।

 

“आयुर्वेद व प्राचीन भारतीय संस्कृतिके प्रचार हेतु पतंजलि योगपीठद्वारा किए गए प्रयास प्रशंसनीय है । जो कार्य स्वतन्त्रता पश्चात शासक वर्गद्वारा किए जाने थे, वे नागरिकोंद्वारा किए जा रहे हैं, यदि स्वतन्त्रता पश्चात ही शासकवर्गद्वारा इसमें सहयोग मिलता तो आज भारतका लगभग ३५-४० सहस्र कोटि धन हमें हानिकारक रासायनिक औषधियों हेतु किसी विदेशीको देनेकी क्या आवश्यकता थी ? हास्यास्पद है कि जो आयुर्वेदके ज्ञान रखने वाला देश बडी-बडी शल्यचिकित्सा भी स्वयं करते थे, उसी राष्ट्रके लोग अब एक साधारण ज्वरके लिए भी हानिकारक रासायनिक औषधियोंपर आश्रित हैं !”- सम्पादक, वैदिक उपासना पीठ

स्रोत : अमर उजाला



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