बाहरका भोजन साधकोंने क्यों नहीं करना चाहिए ? (भाग-१)


धर्मप्रसारके मध्य अनेक घरोंमें रहना होता है और इस मध्य मैंने देखा है कि यह जानते हुए भी बाहरका बना हुआ भोजन नहीं करना चाहिए तब भी वे इसे ग्रहण करते हैं; इसलिए यह लेखमाला आरम्भ कर रही हूं ।
एक सरलसा सिद्धान्त ध्यानमें रखें कि हम जो भोजन ग्रहण करते हैं, वह हमारी स्थूल देह ही नहीं; अपितु सूक्ष्म देह अर्थात मन एवं बुद्धिको भी प्रभावित करता है । मैंने ऐसा पाया है कि जो बहुत अधिक तामसिक भोजन करते हैं या बाहरका भोजन करते हैं, उनसे अधिक समय बैठकर नामजप भी नहीं होता है, वे अस्थिर चित्तके होते हैं । उनका विवेक भी जाग्रत नहीं होता है अर्थात वे योग्य और अयोग्यमें भेद करनेमें भी सक्षम नहीं होते हैं, सूक्ष्मका ज्ञान तो बहुत दूरकी बात है ।
हमारी हिन्दू संस्कृतिमें भोजन बनानेकी कलाको पाककलाकी संज्ञा दी गई है । यहां कलाका अर्थ ईश्वरप्राप्तिका माध्यम है; इसलिए जहां वह बनता है, उसे अन्नपूर्णा कक्ष कहते हैं अर्थात वह भी एक देवालय समान ही होता है; इसलिए सुसंस्कारित परिवारोंमें आज भी उस कक्षमें उस घरके सदस्य बिना स्नानके नहीं जाते हैं और न ही उस घरकी स्त्रियां मासिक धर्मके अशुद्ध कालमें जाती हैं और न ही वहां कोई बाहरके पादत्राण या चर्मके (चमडेके) पादत्राण (चप्पल) पहनकर जाते हैं । उस कक्षकी शुचिताका पालन करने हेतु पूर्वकालमें भोजन बनानेवाले यदि घरके सदस्य न हों तो मात्र संस्कारी ब्राह्मण या ब्राह्मणी होते थे । कालान्तरमें यह संस्कार हम हिन्दुओंके घरसे लुप्त होने लगा और हमारा घर व शरीर रोगोंकी शरणस्थली बन गई । जिन्हें शारीरिक रोग नहीं होते हैं, उन्हें मानसिक रोग होते हैं, इसका भी एक मुख्य कारण अशुद्ध एवं अपवित्र भोजन है ।
आप ही सोचें ! बाहर भोजन बनानेवाले ऊपर बताए हुए कितने तथ्योंका पालन करते होंगे ? इसलिए बाहरका अभक्ष्य भोजन करना तबतक टालें, जबतक वह आपके लिए अति आवश्यक न हो ।



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