बाहरका भोजन साधकोंने क्यों नहीं करना चाहिए ? (भाग-२)


साधना अर्थात तमसे रज, उसके पश्चात रजसे सत्त्व गुणकी ओर बढना है तभी हम त्रिगुणातीतकी ओर बढ सकते हैं । जो साधक इस सिद्धान्तको आत्मसात कर लेता है वह अध्यात्मके सर्वोच्च पदको साध्य कर सकता है । हिन्दू धर्ममें त्रिगुणातीत होना अन्य पन्थोंकी तुलनामें अल्प समयमें सम्भव है; क्योंकि हिन्दू धर्मकी दैनिक प्रणालीमें सत्त्वगुणकी वृद्धि करनेके सिद्धान्त समाहित हैं । अन्नके ऊपर हुए सुसंस्कार या कुसंस्कारका हमपर अत्यधिक प्रभाव पडता है; इसलिए हिन्दू धर्ममें हमारे यहां होटल संस्कृति नहीं थी न ही ‘कैटरर’को बुलाकर भोजन बनवानेकी पद्धति थी । हमारे यहां पूर्वकालमें लोग लोग एक पोटलीमें अपने घरसे सूखा आहार लेकर चलते थे । यदि उस अन्नको पकानेकी सुविधा हो तो उसे पकाकर खाते थे, अन्यथा सूखा बना हुआ अल्पाहार लेकर चलते थे और उसीको ग्रहण करते थे । यह सामान्य बात नहीं है, वस्तुतः इसमें भी शास्त्र निहित है ।
वैसे ही हमारे यहां जब भी कोई उत्सव, विवाह, उपनयन संस्कार या श्राद्ध हेतु सार्वजनिक भोज हुआ करता था तो परिजन, मित्र मण्डली एवं पडोसी मिलकर उसे बनाते थे । उसमें भी शुचिताका अत्यधिक ध्यान रखा जाता था । और यह सब बहुत प्राचीन बात नहीं है, आजसे ३०-३५ वर्ष पूर्वतक यह सब भारतके प्रत्येक भागमें प्रचलित था । वह तो सत्यानाशी पश्चिम संस्कृतिका प्रभाव, कौटुम्बिक प्रेमका अभाव, एकल परिवार व्यवस्थाने उस सुन्दर व्यवस्थाको नष्ट कर दिया है । आज लोग आवश्यकता पडनेपर नहीं; अपितु जिह्वा सुख हेतु ‘होटल’में जाकर खाते हैं और बाहरसे भोजन बनानेवालेको बुलाते हैं और किसीको भी अपने यहां भोजन बनाने एवं परोसने हेतु रख लेते हैं । उनमें अधिकांश लोगोंको यदि आप भोजन बनाते समय देख लें तो आप उनके हाथका भोजन कदापि नहीं करेंगे; क्योंकि वे बहुत ही अशुद्ध एवं अपवित्र रहते हैं । अब ऐसे भोजनसे शरीर और मनपर क्या प्रभाव पडेगा ? आप किंचित विचार करें !



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