दत्तात्रेय देवता कौन हैं ? (भाग- ४)


दत्तात्रेय देवताके जन्मका इतिहास : पुराणोंमें ऐसा वर्णन मिलता है कि दत्तका जन्म वर्तमान मन्वंतरके आरम्भमें प्रथम पर्यायके त्रेता युगमें हुआ ।

पुराणोंके अनुसार, अत्रि ऋषिकी पत्नी अनसूया महापतिव्रता थीं, जिसके कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं महेशने निश्चय किया कि उन पतिव्रताकी परीक्षा लेंगे । एक बार अत्रि ऋषि अनुष्ठानके लिए बाहर गए हुए थे, तब अतिथिके वेशमें त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश) पधारे एवं उन्होंने अनसूयासे भोजन मांगा । अनसूयाने कहा, ‘ऋषि अनुष्ठानके लिए बाहर गए हैं, उनके आनेतक आप प्रतीक्षा करें ।’ त्रिमूर्ति अनसूयासे बोले, ‘‘ऋषिको आनेमें समय लगेगा, हमें बहुत भूख लगी है । तुरन्त भोजन दो, अन्यथा हम कहीं और चले जाएंगे । हमने सुना है कि आप आश्रममें पधारे अतिथियोंको इच्छित भोजन देती हैं, इसलिए हम इच्छा भोजन करने आए हैं ।’’ अनसूयाने उनका स्वागत किया और बैठनेकी विनती की । वे भोजन करने बैठे । जब अनसूया भोजन परोसने लगीं तब वे बोले, ‘‘हमारी इच्छा है कि तुम निर्वस्त्र होकर हमें परोसो ।’’ इसपर उन्होंने सोचा, ‘अतिथिको बिना भोजन कराए भेजना अनुचित होगा । मेरा मन निर्मल है । मेरे पतिका तपफल मुझे तारेगा ।’ ऐसा विचार कर उन्होंने अतिथियोंसे कहा, ‘‘अच्छा ! आप भोजन करने बैठें ।’’ तत्पश्चात रसोईघरमें जाकर पतिका ध्यान कर उसने मनमें भाव रखा, ‘अतिथि मेरे शिशु हैं’ । आकर देखती हैं, तो वहां अतिथियोंके स्थानपर रोते-बिलखते तीन बालक थे ! उन्हें गोदमें लेकर उन्होंने स्तनपान कराया एवं तब बालकोंका रोना रुक गया । इतनेमें अत्रि ऋषि आए । अनसूयाने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया । उन्होंने कहा, ‘‘स्वामिन् देवेन दत्तम् ।’’ अर्थात – ‘हे स्वामी, भगवानद्वारा प्रदत्त (बालक) ।’ इस आधारपर अत्रि ऋषिने उन बालकोंका नामकरण ‘दत्त’ किया । अंतर्ज्ञानसे ऋषि अत्रि बालकोंका वास्तविक रूप पहचान गए और उन्हें नमस्कार किया । बालक पालनेमें रहे एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनके सामने आकर खडे हो गए और प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगनेके लिए कहा । अत्रि एवं अनसूयाने वर मांगा, “ये बालक हमारे घरपर रहें ।” वर देकर देवता अपने लोक चले गए । आगे ब्रह्मदेवतासे चंद्र, श्री विष्णुसे दत्त एवं शंकरसे दुर्वासा हुए । तीनोंमेंसे चंद्र एवं दुर्वासा तप करनेकी आज्ञा लेकर क्रमशः चंद्रलोक एवं तीर्थक्षेत्र चले गए । तीसरे दत्त, विष्णु कार्यके लिए भूतलपर रहे । यही है, गुरुका मूल पीठ ।

अध्यात्मशास्त्रानुसार ‘अ’, अर्थात `नहीं ’ (अ, यह नकारार्थी अव्यय है ।) और ‘त्रि’, अर्थात `त्रिपुटी’; इस प्रकार अत्रि, अर्थात जागृति-स्वप्न-सुषुप्ति, सत्त्व-रज-तम और ध्याता-ध्येय-ध्यान समान त्रिपुटी जिसमें नहीं है, ऐसे अत्रिकी बुद्धि, अनसूया रहित अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह एवं मत्सर इन षड्रिपुओेंसे रहित होती है । इस अवस्थाको ही ‘अनसूया’ कहा गया है । ऐसे शुद्ध बुद्धि-युक्त ऋषिके संकल्पसे ही दत्तात्रेयका जन्म हुआ है ।



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